परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् ।
जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ॥
-सुभाषित रत्नावली
परोपकार रहित मानव के जीवन को धिक्कार है ।
वे पशु धन्य है, मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में आता है ।
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जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है,
अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता ?
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एकः शत्रु र्न द्वितीयोऽस्ति शत्रुः ।
अज्ञानतुल्यः पुरुषस्य राजन् ॥
-महाभारत
हे राजन् ! इन्सान का एक ही शत्रु है, अन्य कोई नहीं; वह है अज्ञान ।
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षड् दोषा: पुरूषेण इह,हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध:,आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
-विदुर नीति
ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरूषों को -
निद्रा, तन्द्रा , डर, क्रोध , आलस्य एवं दीर्घसूत्रता -
ये छ: दुर्गुण छोड़ देना चाहिए ।
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आयुष क्षण एकोऽपि न लभ्य: स्वर्णकोटिभि: ।
स चेन्निरर्थकं नीतः का नु हानिस्ततोधिका? ॥
-चाणक्य नीति
जीवन का एक क्षण भी कोटि स्वर्णमुद्रा देने पर भी नहीं मिल सकता । वह यदि नष्ट हो जाय तो इससे अधिक हानि क्या हो सकती है ?
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लंबी शाल तथा खेस इत्यादि धारण किया हुआ मूर्ख दूर से शोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही शोभित होता है जब तक कुछ बोलता नहीं है!
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