Monday, June 26, 2023

Chanakya Slokas (चाणक्य नीति श्लोक) - 6

 

अनवस्थितकायस्य न जने न वने सुखम्। जनो दहति संसर्गाद् वनं सगविवर्जनात॥

 भावार्थ :जिसका चित्त स्थिर नहीं होता, उस व्यक्ति को न तो लोगों के बीच में सुख मिलता है और न वन में ही । लोगो के बीच में रहने पर उनका साथ जलता है तथा वन में अकेलापन जलाता है ।

यथा खनित्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति। तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रुषुरधिगच्छति॥

 भावार्थ :जैसे फावड़े से खोदकर भूमि से जल निकला जाता है, इसी प्रकार सेवा करनेवाला विद्यार्थी गुरु से विद्या प्राप्त करता है ।

पृथिव्यां त्रीणी रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम् । मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥

 भावार्थ :अनाज, पानी और सबके साथ मधुर बोलना - ये तीन चीजें ही पृथ्वी के सच्चे रत्न हैं । हीरे जवाहरात आदि पत्थर के टुकड़े ही तो हैं । इन्हें रत्न कहना केवल मूर्खता है ।

आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् । दारिद्रयरोग दुःखानि बन्धनव्यसनानि च॥

 भावार्थ :निर्धनता, रोग, दुःख, बन्धन, और बुरी आदतें सब-कुछ मनुष्य के कर्मो के ही फल होते हैं । जो जैसा बोता है, उसे वैसा ही फल भी मिलता है, इसलिए सदा अच्छे कर्म करने चाहिए ।

बहूनां चैव सत्तवानां रिपुञ्जयः । वर्षान्धाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते॥

 भावार्थ :शत्रु चाहे कितना बलवान हो; यदि अनेक छोटे-छोटे व्यक्ति भी मिलकर उसका सामना करे तो उसे हरा देते हैं । छोटे-छोटे तिनकें से बना हुआ छपर मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को भी रोक देता है । वास्तव में एकता में बड़ी भारी शक्ति है ।

त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥

 भावार्थ :दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।


जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः॥

 भावार्थ :जल में तेल, दुष्ट से कहि गई बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को दिया ज्ञान थोड़ा सा होने पर भी अपने- आप विस्तार प्राप्त कर लेते हैं ।

उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वा स्यात्कस्य स्यान्न महोदयः ॥

 भावार्थ :गलती करने पर जो पछतावा होता है, यदि ऐसी मति गलती करने से पहले ही आ जाए, तो भला कौन उन्नति नहीं करेगा और किसे पछताना पड़ेगा ?

दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥

 भावार्थ :मानव-मात्र में किभी भी अहंकार की भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि मानव को दान, तप, शूरता, विद्वता, शुशीलता और नीतिनिपुर्णता का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए । यह अहंकार ही मानव मात्र के दुःख का कारण बनता है और उसे ले डूबता है ।

दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः । यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः॥

 भावार्थ :जो व्यक्ति हृदय में रहता है, वह दूर होने पर भी दूर नहीं है । जो हृदय में नहीं रहता वह समीप रहने पर भी दूर है ।

प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः॥

 भावार्थ :किसी सभा में कब क्या बोलना चाहिए, किससे प्रेम करना चाहिए तथा कहां पर कितना क्रोध करना चाहिए जो इन सब बातों को जानता है, उसे पण्डित अर्थात ज्ञानी व्यक्ति कहा जाता है ।

तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलश्चैव वासराः । यावत्सर्वं जनानन्ददायिनी वाङ्न प्रवर्तते॥

 भावार्थ :कोयल तब तक मौन रहकर दिनों को बिताती है, जब तक कि उसकी मधुर वाणी नहीं फूट पड़ती । यह वाणी सभी को आनन्द देती है । अतः जब भी बोले, मधुर बोलो । कड़वा बोलने से चुप रहना ही बेहतर है । 

यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु । तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटा भसमलेपनैः॥

 भावार्थ :जिस मनुष्य का हृदय सभी प्राणियों के लिए दया से द्रवीभूत हो जाता है, उसे ज्ञान, मोक्ष, जता, भष्म - लेपन आदि से क्या लेना ।

एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद् दत्त्वा चाऽनृणी भवेत् ॥

 भावार्थ :जो गुरु एक अक्षर का भी ज्ञान करता है, उसके ऋण से मुक्त होने के लिए, उसे देने योग्य पृथ्वी में कोई पदार्थ नहीं है ।

अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति॥

 भावार्थ :लक्ष्मी वैसे ही चंचल होती है परन्तु चोरी, जुआ, अन्याय और धोखा देकर कमाया हुआ धन भी स्थिर नहीं रहता, वह बहुत शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । अतः व्यक्ति को कभी अन्याय से धन के अर्जन में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए ।

अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्या अल्पं च कालो बहुविघ्नता च । आसारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्॥

 भावार्थ :शाश्त्र अनेक हैं, विद्याएं अनेक हैं, किन्तु मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है, उसमें भी अनेक विघ्न हैं । इसलिए जैसे हंस मिले हुए दूध और पानी में से दूध पि लेता है और पानी को छोड़ देता है उसी तरह काम की बातें ग्रहण कर लो तथा बाकी छोड़ दो

न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥

 भावार्थ :सोने की हिरणी न तो किसी ने बनायी, न किसी ने इसे देखा और न यह सुनने में ही आता है कि हिरणी सोने का भी होती है । फिर भी रघुनन्दन की तृष्णा देखिये ! वास्तव में विनाश का समय आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है ।

गुणैरुत्तमतां यान्ति नोच्चैरासनसंस्थितैः । प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काको गरुडायते ॥

 भावार्थ :गुणों से ही मनुष्य बड़ा बनता है, न कि किसी ऊंचे स्थान पर बैठ जाने से । राजमहल के शिखर पर बैठ जाने पर भी कौआ गरुड़ नहीं बनता ।

प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति मानवाः । तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥

 भावार्थ :मधुर वचन बोलना, दान के समान है । इससे सभी मनुष्यों को आनन्द मिलता है । अतः मधुर ही बोलना चाहिए । बोलने में कैसी गरीबी !

पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु च यद्धनम् । उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ॥

 भावार्थ :जो विद्या पुस्तक में ही है, और जो धन दूसरे को हाथ में चला गया है, ये दोनों चीजें समय पर काम नहीं आतीं ।

कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसेन प्रतिहिंसनम् । तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत्॥

 भावार्थ :उपकारी के साथ उपकार, हिंसक के साथ प्रतिहिंसा करनी चाहिए तथा दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए । इसमें कोई दोष नहीं है ।

यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥

 भावार्थ :कोई वस्तु चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो, उसका मिलना कितना ही कठिन क्यों न हो, और वह पहुचं से बहार क्यों न हो, कठिन तपस्या अर्थात परिश्रम से उसे भी प्राप्त किया जा सकता है । परिश्रम सबसे शक्तिशाली वस्तु है ।

नान्नोदकसमं दानं न तिथिर्द्वादशी समा । न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुर्दैवतं परम् ॥

 भावार्थ :अन्न और जल के दान के समान कोई नहीं है । द्वादशी के समान कोई तिथि नहीं है । गायत्री से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है । माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है ।

दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन । मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन॥

 भावार्थ :दान से ही हाथों की सुन्दरता है, न कि कंगन पहनने से, शरीर स्नान से ही शुद्ध होता है न कि चन्दन का लेप लगाने से, तृप्ति मान से होता है, न कि भोजन से, मोक्ष ज्ञान से मिलता है, न कि श्रृंगार से । 

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