Monday, December 17, 2018

एकात्मता मंत्र ( Ekatmata Mantra )

यं वैदिका मन्त्रदृशः पुराणाः इन्द्रं यमं मातरिश्वा नमाहुः।
वेदान्तिनो निर्वचनीयमेकम् यं ब्रह्म शब्देन विनिर्दिशन्ति॥
शैवायमीशं शिव इत्यवोचन् यं वैष्णवा विष्णुरिति स्तुवन्ति।
बुद्धस्तथार्हन् इति बौद्ध जैनाः सत् श्री अकालेति च सिख्ख सन्तः॥
शास्तेति केचित् कतिचित् कुमारः स्वामीति मातेति पितेति भक्त्या।
यं प्रार्थन्यन्ते जगदीशितारम् स एक एव प्रभुरद्वितीयः॥
English Transliteration:
yaṁ vaidikā mantradṛśaḥ purāṇāḥ indraṁ yamaṁ mātariśvā namāhuḥ |
edāntino nirvacanīyamekam yaṁ brahma śabdena vinirdiśanti ||
śaivāyamīśaṁ śiva ityavocan yaṁ vaiṣṇavā viṣṇuriti stuvanti |
buddhastathārhan iti bauddha jaināḥ sat śrī akāleti ca sikhkha santaḥ ||
śāsteti kecit katicit kumāraḥ svāmīti māteti piteti bhaktyā |
yaṁ prārthanyante jagadīśitāram sa eka eva prabhuradvitīyaḥ ||
Meaning:
Whom (Yam) the Vaidika Mantradrashah (those who have understood the Vedas and to whom the mantras were revealed), the Puranas (stories and history of ancient times) and other sacred scrip­tures call: Indram (Indra, the God of Gods), Yamam (Yama, the eternal timeless God) and Mātariśvā (present everywhere like air). Whom the Vedāntins (those who follow the philosophy of Vedānta), indicate by the word Brahma as the One (ekam) which cannot be described or explained (Nirvachaniya).
Whom the Śaivas call (Avochan) the Omnipotent (Yamisham) Śiva and Vaishnavas praise (stuvanti) as Vishnu, the Buddhists and Jains (Baudhajainaha) respectively call as Buddha and Arhant (without any end), whom the Sikh sages (Sikh-santaha) call Sat Śrī Akāl (the timeless Truth).
Some (kecit) call Whom as Śāstā, others (katicit) Kumāra, some call It Swāmī (Lord of the Universe and protector of all), some Mātā (divine mother) or Pitā (father). To whom they offer prayers, It (Sa) is the same and the only One (Eka Eva), without a second (advitiyah).

Wednesday, October 4, 2017

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो तपः।

अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो तपः।
अहिंसा परमो सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते।
अहिंसा परमो धर्मः, अहिंसा परमो दमः।
अहिंसा परम दानं, अहिंसा परम तपः॥
अहिंसा परम यज्ञः अहिंसा परमो फलम्‌।
अहिंसा परमं मित्रः अहिंसा परमं सुखम्‌॥
महाभारत/अनुशासन पर्व (११५-२३/११६-२८-२९)
याद रखने वाली बात है अहिंसा का अर्थ है अकारण हिंसा न करना | जीव हत्या पाप है यदि अकारण हो किन्तु यदि वही जीव आप पर आक्रमण कर दे तो उसका वध करना ही उचित है | यदि कोई आपको या आपकी स्त्री को, कुटुंब को, गाय को और अन्यान्य प्राणियों को कष्ट पहुंचता है तो आपको भी हिंसा करनी पड़ेगी और उस समय वह धर्म होगा | बस आपकी ओर से हिंसा शुरू नहीं होनी चाहिए वो भी अकारण | तब ये अहिंसा ही धर्म बन जाती है |

“अहिंसा परमो धर्मः …” – महाभारत में अहिंसा संबंधी नीति वचन

“अहिंसा परमो धर्मः” यह नीति-वचन लोगों के मुख से अक्सर सुनने को मिलता है। प्राचीन काल में अपने भारतवर्ष में जैन तीर्थंकरों ने अहिंसा को केंद्र में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्धारण एवं निर्वाह किया। अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के लगभग समकालीन (कुछ बाद के) महात्मा बुद्ध ने भी करीब ढाई हजार वर्ष पूर्व तमाम कर्तव्यों के साथ अहिंसा का उपदेश तत्कालीन समाज को दिया था। अरब भूमि में ईशू मसीह ने भी कुछ उसी प्रकार की बातें कहीं। आधुनिक काल में महात्मा गांधी को भी अहिंसा के महान् पुजारी/उपदेष्टा के रूप में देखा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने तो उनके सम्मान में 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित कर दिया।
अहिंसा की बातें घूमफिर कर सभी समाजों में की जाती रही हैं, लेकिन उसकी परिभाषा सर्वत्र एक जैसी नहीं है। उदाहरणार्थ जैन धर्म में अहिंसा की परिभाषा अति व्यापक है, किसी भी जीवधारी को किसी भी प्रकार से कष्ट में डालना वहां वर्जित है। इस धारणा के साथ जीवन धारण करना लगभग नामुमकिन है। अरब मूल के धर्मो के अनुसार मनुष्य को छोड़कर अन्य जीवों में रूह नहीं होती, तदनुसार उनके साथ अहिंसा बेमानी है। कुर’आन से मैंने यही निष्कर्ष निकाला। वास्तव में सभी समाज अपने भौतिक हितों को ध्यान में रखते हुए अहिंसा की परिभाषा अपनाते हैं। विडंबना देखिए कि महावीर, बुद्ध एवं गांधी के इस भारत में अहिंसा की कोई अहमियत नहीं। पग-पग पर हिंसा के दर्शन होते है। अहिंसा वस्तुतः एक आदर्श है जिससे आम तौर पर सभी परहेज करते हैं। लेकिन “अहिंसा परमो धर्मः” की बात मंच पर सभी कहते हैं।
अस्तु, अहिंसा या हिंसा की वकालत करना इस आलेख में मेरा उद्देश्य नहीं है। “अहिंसा परमो धर्मः”की नीति की मानव जीवन में सार्थकता है या नहीं इसकी समीक्षा मैं नहीं कर रहा हूं। मैं केवल यह बताना चाहता हूं कि इस नीति का उल्लेख महाभारत महाकाव्य में कई स्थालों पर देखने को मिलता है। उन्हीं की चर्चा करना मेरा प्रयोजन है। जो यहां उल्लिखित हो उसके अतिरिक्त भी अन्य स्थलों पर बातें कही गयी होंगी जिनका ध्यान या जानकारी मुझे नहीं है।
अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः ।
सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः ॥74
(महाभारतवन पर्वअध्याय 207 – मारकण्डेयसमास्यापर्व)
(अहिंसा परमः धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः सत्ये तु प्रतिष्ठाम् कृत्वा प्रवृत्तयः प्रवर्तन्ते ।)
अर्थ – अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है, और वह सत्य पर ही टिका होता है। सत्य में निष्ठा रखते हुए ही कार्य संपन्न होते हैं।
यहां कार्य से तात्पर्य सत्कर्मों से होना चाहिए। सत्कर्म सत्य के मार्ग पर चलने से ही संभव होते हैं।धर्म बहुआयामी अवधरणा है। मनुष्य के करने और न करने योग्य अनेकानेक कर्मों का समुच्चय धर्म को परिभाषित करता है। करने योग्य कर्मों में अहिंसा सबसे ऊपर या सबसे पहले है यह उपदेष्टा का मत है।
महाभारत ग्रंथ के वन पर्व में पांडवों के 12 वर्षों के वनवास (उसके पश्चात् एक वर्ष का नगरीय अज्ञातवास भी पूरा करना था) का वर्णन है। वे वन में तमाम ऋषि-मुनियों के संपर्क में आते हैं जिनसे उन्हें भांति-भांति का ज्ञान मिलता है। उसी वन पर्व में पांडवों का साक्षात्कार ऋषि मारकंडेय से भी होता है। ऋषि के मुख से उन्हें कौशिक नाम के ब्राह्मण और धर्मनिष्ठ व्याध के बीच के वार्तालाप की बात सुनने को मिलती है। उक्त श्लोक उसी के अंतर्गत उपलब्ध है।
अगले दो श्लोक अनुशासन पर्व से लिए गए हैं। महाभारत युद्ध के बाद सब शांत हो जाता है और युधिष्ठिर राजा का दायित्व संभाल लेते हैं। भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में मृत्यु-शैया पर लेटे होते हैं। वे युधिष्ठिर को राजधर्म एवं नीति आदि का उपदेश देते हैं। ये श्लोक उसी प्रकरण के हैं।
अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः ।
दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते ॥18
(महाभारतअनुशासन पर्वअध्याय 60 – दानधर्मपर्व)
(अहिंसा सर्व-भूतेभ्यः संविभागः च भागशः दमः त्यागः धृतिः सत्यम् भवति अवभृताय ते ।)
अर्थ – सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा बरतना, सभी को यथोचित भाग सोंपना, इंद्रिय-संयम, त्याग, धैर्य एवं सत्य पर टिकना अवभृत स्नान के तुल्य (पुण्यदायी) होता है।
वैदिक परंपरा में यज्ञ-यागादि का विशेष महत्व है और उन्हें पुण्य-प्राप्ति का महान् मार्ग माना जाता है। ऐसे आयोजन के समापन के पश्चात विधि-विधान के साथ किए गये स्नान को अवभृत स्नान कहा गया है। यहां बताये गये अहिंसा आदि उस स्नान के समान फलदातक होते हैं यह श्लोक का भाव है।
उक्त श्लोक में “अहिंसा परमो धर्मः” कथन विद्यमान नहीं है, किंतु अहिंसा के महत्व को अवश्य रेखांकित किया गया है। वनपर्व का अगला श्लोक ये है:
अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥23
(महाभारतअनुशासन पर्वअध्याय 115 – दानधर्मपर्व)
(अहिंसा परमो धर्मः तथा अहिंसा परम्‍ तपः अहिंसा परमम्‍ सत्यम्‍ यतः धर्मः प्रवर्तते ।)
अर्थ – अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम तप है, और अहिंसा ही परम सत्य और जिससे धर्म की प्रवृत्ति आगे बढ़ती है।
इस वचन के अनुसार अहिंसा, तप और सत्य आपस में जुड़े हैं। वस्तुतः अहिंसा स्वयं में तप है, तप का अर्थ है अपने को हर विपरीत परिस्थिति में संयत और शांत रखना। जिसे तप की सामर्थ्य नहीं वह अहिंसा पर टिक नहीं सकता। इसी प्रकार सत्यवादी ही अहिंसा पर टिक सकता है यह उपदेष्टा का मत है।
अहिंसा की जितनी भी प्रशंसा हम कर लें, तथ्य यह है कि मानव समाज अहिंसा से नहीं हिंसा से चलता है

Wednesday, August 10, 2016

शादी के सात फेरों के ये सात वचन..

हिंदू धर्म में शादी से जुड़े रिति-रिवाजों का बहुत महत्व है. वैवाहिक जीवन की शुरुआत में ही पति-पत्नी के बीच सात वचन लिए जाते हैं और इन्हीं को निभाते हुए दोनों एक-दूसरे के साथ पूरी जिंदगी गुजरने की कसमें खाते हैं. आइए जानें क्या हैं वो सात फेरों के सात वचन...


पहला वचन:
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी॥

अर्थ-
(यहां कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने साथ लेकर जाना. कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम (बाएं) भाग में अवश्य स्थान दें. यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग (बाएं ओर) में आना स्वीकार करती हूं.)
किसी भी तरह के धार्मिक कामों को पूरा करने के लिए पति के साथ पत्नी का होना अनिवार्य माना गया है. जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नी मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है. पत्नी द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नी की सहभागिता और उसका महत्व बताया गया है.

दूसरा वचन:
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम॥

अर्थ-
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग (बाएं ओर) में आना स्वीकार करती हूं.)
यहां इस वचन से कन्या की दूरदृष्टि का पता होता है. आज का समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है कि गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर पति अपनी पत्नी के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है. उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार अवश्य करना चाहिए.

तीसरा वचन:
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात।
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं॥

अर्थ-
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूं.)

चौथा वचन:
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं॥

अर्थ-
(कन्या चौथा वचन ये मांगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूरी तरह मुक्त थे. अब जबकि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की सभी जरूरतों को पूरा करने का दायित्व आपके कंधों पर है. यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूं.)
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उत्तरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृष्ट करती है. विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है. अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी. इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके. इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खड़ा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे.

पांचवां वचन:
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या॥

अर्थ-
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के समय में बहुत जरूरी है. वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी सलाह लेंगे तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं.)
यह वचन पूरी तरह से पत्नी के अधिकारों को जताता है. बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह लेना जरूरी नहीं समझते. अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से भी बात कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढ़ता ही है, साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है.

छठा वचन:
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत।
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम॥

अर्थ-
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूं तब आप वहां सबके सामने किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे. यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं.)
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन का गम्भीर अर्थ है. विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है. वे जरा-जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डांट देते हैं. ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन बहुत दुखता है. यहां पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किंतु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं बुरे कामों में फंसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले.

सातवां वचन:
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या।
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या॥

अर्थ-
(अंतिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें. यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं.)
विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बंध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है. इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है.

Thursday, October 17, 2013

अपनी भारत की संस्कृति को पहचाने —

अपनी भारत की संस्कृति को पहचाने —
दो पक्ष – कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष !
तीन ऋण – देव ऋण, पित्र ऋण एवं ऋषि त्रण !
चार युग – सतयुग , त्रेता युग , द्वापरयुग एवं कलयुग !
चार धाम – द्वारिका , बद्रीनाथ, जगन्नाथ पूरी एवं रामेश्वरम धाम !
चारपीठ – शारदा पीठ ( द्वारिका ), ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम), गोवर्धन पीठ ( जगन्नाथपुरी ) एवं श्रन्गेरिपीठ!
चर वेद- ऋग्वेद , अथर्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद !
चार आश्रम – ब्रह्मचर्य , गृहस्थ , बानप्रस्थ एवं संन्यास !
चार अंतःकरण – मन , बुद्धि , चित्त , एवं अहंकार !
पञ्च गव्य – गाय का घी, दूध, दही, गोमूत्र एवं गोबर, !
पञ्च देव – गणेश , विष्णु , शिव , देवी और सूर्य !
पंच तत्त्व – प्रथ्वी , जल , अग्नि , वायु एवं आकाश !
छह दर्शन – वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा एवं उत्तर मिसांसा !
सप्त ऋषि – विश्वामित्र, जमदाग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्री, वशिष्ठ और कश्यप !
सप्त पूरी – अयोध्या पूरी , मथुरा पूरी , माया पूरी ( हरिद्वार ) , कशी , कांची ( शिन कांची – विष्णु कांची ) , अवंतिका और द्वारिका पूरी !
आठ योग – यम, नियम, आसन, प्राणायाम , प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधी !
आठ लक्ष्मी – आग्घ , विद्या , सौभाग्य , अमृत , काम , सत्य , भोग , एवं योग लक्ष्मी !
नव दुर्गा – शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री !
दस दिशाएं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, इशान, नेत्रत्य, वायव्य आग्नेय,आकाश एवं पाताल !
मुख्या दस अवतार – मत्स्य, कच्छप, बराह, नरसिंह, बामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बलराम एवं कल्कि !
ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र पाशुपत, आग्नेय अस्त्र, पर्जन्य अस्त्र, पन्नग अस्त्र या सर्प अस्त्र,गरुड़ अस्त्र, शक्ति अस्त्र, फरसा, गदा एवं चक्र l
ग्यारह कौमार ऋषि – सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमार, मरीचि, अत्री, अंगीरा, पुलह, क्रतु, पुलस्त्य एवं वशिष्ठ l
बारह मास – चेत्र, वैशाख, ज्येष्ठ,अषाड़, श्रावन, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष. पौष, माघ एवं फागुन !
बारह राशी – मेष, ब्रषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, तुला, ब्रश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, कन्या एवं मीन !
बारह ज्योतिर्लिंग – सोमनाथ, मल्लिकर्जुना, महाकाल, ओमकालेश्वर, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ, त्रियम्वाकेश्वर, केदारनाथ, घुष्नेश्वर, भीमाशंकर एवं नागेश्वर !
बारह विश्व की प्रारम्भिक जातियां – देवऋषि, देवता, गन्धर्व, किन्नर, रूद्र, खस, नाग, गरुड व अरुण, दानव, दैत्य, असुर एवं वसु l
चौदह मनु – स्वायंभुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, अर्क सावर्णि, दक्ष सावर्णि, ब्रह्म सावर्णि, धर्म सावर्णि, रुद्र सावर्णि, रौच्य एवं भौत्य।
पंद्रह तिथियाँ – प्रतिपदा, द्वतीय, तृतीय, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावश्या !
स्म्रतियां – मनु, विष्णु, अत्री, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगीरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, ब्रहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ !

Saturday, September 14, 2013

हिन्दू माह और छः ऋतुएँ और आठ दिशाएँ

हिन्दू माह

चैत्र (चैत)
वैशाख (बैसाख)
ज्येष्ठ (जेठ)
आषाढ़
श्रावण (सावन)
भाद्रपक्ष (भादों)
आश्विन (क्वार)
कार्तिक
मार्गशीष (अगहन)
पौष
माघ
फाल्गुन

छः ऋतुएँ

वसंत
ग्रीष्म
वर्षा
शरद
हेमंत
शिशिर

आठ दिशाएँ

पूर्व
ईशान
उत्तर
वायव्य
पश्चिम
नैऋत्य
दक्षिण
आग्नेय

संस्कृत सुभाषित के हिन्दी अर्थ हैं।

सुभाषित शब्द "सु" और "भाषित" के मेल से बना है जिसका अर्थ है "सुन्दर भाषा में कहा गया"। संस्कृत के सुभाषित जीवन के दीर्घकालिक अनुभवों के भण्डार हैं।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैवकुटम्बकम्॥११॥


"ये मेरा है", "वह उसका है" जैसे विचार केवल संकुचित मस्तिष्क वाले लोग ही सोचते हैं। विस्तृत मस्तिष्क वाले लोगों के विचार से तो वसुधा एक कुटुम्ब है।

क्षणशः कणशश्चैव विद्यां अर्थं च साधयेत्।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम्॥१२॥


प्रत्येक क्षण का उपयोग सीखने के लिए और प्रत्येक छोटे से छोटे सिक्के का उपयोग उसे बचाकर रखने के लिए करना चाहिए, क्षण को नष्ट करके विद्याप्राप्ति नहीं की जा सकती और सिक्कों को नष्ट करके धन नहीं प्राप्त किया जा सकता।

अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद गजभूषणम्।
चातुर्यं भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणम्॥१३॥


तेज चाल घोड़े का आभूषण है, मत्त चाल हाथी का आभूषण है, चातुर्य नारी का आभूषण है और उद्योग में लगे रहना नर का आभूषण है।

क्षुध् र्तृट् आशाः कुटुम्बन्य मयि जीवति न अन्यगाः।
तासां आशा महासाध्वी कदाचित् मां न मुञ्चति॥१४॥


भूख, प्यास और आशा मनुष्य की पत्नियाँ हैं जो जीवनपर्यन्त मनुष्य का साथ निभाती हैं। इन तीनों में आशा महासाध्वी है क्योंकि वह क्षणभर भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती, जबकि भूख और प्यास कुछ कुछ समय के लिए मनुष्य का साथ छोड़ देते हैं।

कुलस्यार्थे त्यजेदेकम् ग्राम्स्यार्थे कुलंज्येत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥१५॥


कुटुम्ब के लिए स्वयं के स्वार्थ का त्याग करना चाहिए, गाँव के लिए कुटुम्ब का त्याग करना चाहिए, देश के लिए गाँव का त्याग करना चाहिए और आत्मा के लिए समस्त वस्तुओं का त्याग करना चाहिए।

नाक्षरं मंत्रहीतं नमूलंनौधिम्।
अयोग्य पुरुषं नास्ति योजकस्तत्रदुर्लभः॥१६॥


ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र के लिए प्रयोग न किया जा सके, ऐसी कोई भी वनस्पति नहीं है जिसका औषधि के लिए प्रयोग न किया जा सके और ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसका सदुपयोग के लिए प्रयोग किया जा सके, किन्तु ऐसे व्यक्ति अत्यन्त दुर्लभ हैं जो उनका सदुपयोग करना जानते हों।

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मो धारयत प्रजाः।
यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः॥१७॥


"धर्म" शब्द की उत्पत्ति "धारण" शब्द से हुई है (अर्थात् जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है), यह धर्म ही है जिसने समाज को धारण किया हुआ है। अतः यदि किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निस्सन्देह वह धर्म है।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषां अधिकोविशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥१८॥


आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु दोनों ही के स्वाभाविक आवश्यकताएँ हैं (अर्थात् यदि केवल इन चारों को ध्यान में रखें तो मनुष्य और पशु समान हैं), केवल धर्म ही मनुष्य को पशु से श्रेष्ठ बनाता है। अतः धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान ही होता है।

सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेत्।
यद्भूतहितमत्यन्तं एतत् सत्यं मतं मम्॥१९॥


यद्यपि सत्य वचन बोलना श्रेयस्कर है तथापि उस सत्य को ही बोलना चाहिए जिससे सर्वजन का कल्याण हो। मेरे (अर्थात् श्लोककर्ता नारद के) विचार से तो जो बात सभी का कल्याण करती है वही सत्य है।

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात ब्रूयान्नब्रूयात् सत्यंप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रुयादेषः धर्मः सनातनः॥२०॥


सत्य कहो किन्तु सभी को प्रिय लगने वाला सत्य ही कहो, उस सत्य को मत कहो जो सर्वजन के लिए हानिप्रद है, (इसी प्रकार से) उस झूठ को भी मत कहो जो सर्वजन को प्रिय हो, यही सनातन धर्म है।

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥२१॥

(वाल्मीकि रामायण)

हे लक्ष्मण! सोने की लंका भी मुझे नहीं रुचती। मुझे तो माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है।

मरणानतानि वैराणि निवृत्तं नः प्रयोजनम्।
क्रियतामस्य संसकारो ममापेष्य यथा तव॥२२॥

(वाल्मीकि रामायण)

किसी की मृत्यु हो जाने के बाद उससे बैर समाप्त हो जाता है, मुझे अब इस (रावण) से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। अतः तुम अब इसका विधिवत अन्तिम संस्कार करो।

काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥२३॥


बुद्धिमान व्यक्ति काव्य, शास्त्र आदि का पठन करके अपना मनोविनोद करते हुए समय को व्यतीत करता है और मूर्ख सोकर या कलह करके समय बिताता है।

तैलाद् रक्षेत् जलाद् रक्षेत् रक्षेत् शिथिल बंधनात्।
मूर्ख हस्ते न दातव्यं एवं वदति पुस्तकम्॥२४॥


एक पुस्तक कहता है कि मेरी तेल से रक्षा करो (तेल पुस्तक में दाग छोड़ देता है), मेरी जल से रक्षा करो (पानी पुस्तक को नष्ट कर देता है), मेरी शिथिल बंधन से रक्षा करो (ठीक से बंधे न होने पर पुस्तक के पृष्ठ बिखर जाते हैं) और मुझे कभी किसी मूर्ख के हाथों में मत सौंपो।

श्रोतं श्रुतनैव न तु कुण्डलेन दानेन पार्णिन तु कंकणेन।
विभाति कायः करुणापराणाम् परोपकारैर्न तु चंदनेन॥२५॥


कान की शोभा कुण्डल से नहीं बल्कि ज्ञानवर्धक वचन सुनने से है, हाथ की शोभा कंकण से नहीं बल्कि दान देने से है और काया (शरीर) चन्दन के लेप से दिव्य नहीं होता बल्कि परोपकार करने से दिव्य होता है।

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्यां हि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्॥२६॥


भाषाओं में सर्वाधिक मधुर भाषा गीर्वाणभारती अर्थात देवभाषा (संस्कृत) है, संस्कृत साहित्य में सर्वाधिक मधुर काव्य हैं और काव्यों में सर्वाधिक मधुर सुभाषित हैं।

उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्त मरणं तृणम्।
विरक्तस्य तृणं भार्या निस्पृहस्य तृणं जगत्॥२७॥


उदार मनुष्य के लिए धन तृण के समान है, शूरवीर के लिए मृत्यु तृण के समान है, विरक्त के लिए भार्या तृण के समान है और निस्पृह (कामनाओं से रहित) मनुष्य के लिए यह जगत् तृण के समान है।

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन्।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते॥२८॥


राजत्व प्राप्ति और विद्वत्व प्राप्ति की किंचित मात्र भी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा की पूजा केवल उसके अपने देश में ही होती है जबकि विद्वान की पूजा सर्वत्र (पूरे विश्व में) होती है।

दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम्॥२९॥


दुर्जन, जो कि कोयले के समान होते हैं, से प्रीति कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि कोयला यदि गरम हो तो जला देता है और शीतल होने पर भी अंग को काला कर देता है।

चिन्तनीया हि विपदां आदावेव प्रतिक्रिया।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्त वान्हिना गृहे॥३०॥


जिस प्रकार से घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदना आरम्भ करना युक्तिपूर्ण (सही) कार्य नहीं है उसी प्रकार से विपत्ति के आ जाने पर चिन्तित होना भी उपयुक्त कार्य नहीं है। (किसी भी प्रकार की विपत्ति से निबटने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।)

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्यणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मगाः॥३१॥


जिस प्रकार से सोये हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं नहीं चले जाते, सिंह को क्षुधा-शान्ति के लिए शिकार करना ही पड़ता है, उसी प्रकार से किसी कार्य की मात्र इच्छा कर लेने से वह कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, कार्य उद्यम करने से ही सिद्ध होता है।

स्थानभ्रष्टाः न शोभन्ते दन्ताः केशाः नखा नराः।
इति विज्ञाय मतिमान् स्वस्थानं न परित्यजेत्॥३२॥


यदि मनुष्य के दांत, केश, नख इत्यादि अपना स्थान त्याग कर दूसरे स्थान पर चले जाएँ तो वे कदापि शोभा नहीं नहीं देंगे (अर्थात् मनुष्य की काया विकृति प्रतीत होने लगेगी)। इसी प्रकार से विज्ञजन के मतानुसार किसी व्यक्ति को स्वस्थान (अपना गुण, सत्कार्य इत्यादि) का त्याग नहीं करना चाहिए।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रं अमित्रस्य कुतो सुखम्॥३३॥


आलसी को विद्या कहाँ? (आलसी व्यक्ति विद्या प्राप्ति नहीं कर सकता।) विद्याहीन को धन कहाँ? (विद्याहीन व्यक्ति धन नहीं कमा सकता।) धनहीन को मित्र कहाँ? (धन के बिना मित्र की प्राप्ति नहीं हो सकती।) मित्रहीन को सुख कहाँ? (मित्र के बिना सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती।)

उदये सविता रक्तो रक्तशचास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महामेकरूपता॥३४॥

(महाभारत)

जिस प्रकार से सूर्य सुबह उगते तथा शाम को अस्त होते समय दोनों ही समय में लाल रंग का होता है (अर्थात् दोनों ही संधिकालों में एक समान रहता है), उसी प्रकार महान लोग अपने अच्छे और बुरे दोनों ही समय में एक जैसे एक समान (धीर बने) रहते हैं।

शान्तितुल्यं तपो नास्ति तोषान्न परमं सुखम्।
नास्ति तृष्णापरो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥३५॥


शान्ति जैसा कोई तप (यहाँ तप का अर्थ उपलब्धि समझना चाहिए) नहीं है, सन्तोष जैसा कोई सुख नहीं है (कहा भी गया है "संतोषी सदा सुखी), कामना जैसी कोई ब्याधि नहीं है और दया जैसा कोई धर्म नहीं है।

सर्वोपनिषदो गावः दोग्धाः गोपालनन्दनः।
पार्थो वत्सः सुधीः भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्॥३६॥


समस्त उपनिषद गाय हैं, श्री कृष्ण उन गायों के रखवाले हैं, पार्थ (अर्जुन) बछड़ा है जो उनके दूध का पान करता है और गीतामृत ही उनका दूध है। (अर्थात् समस्त उपनिषदों का सार गीता ही है।)

हंसो शुक्लः बको शुक्लः को भेदो बकहंसयो।
नीरक्षीरविवेके तु हंसो हंसः बको बकः॥३७॥


हंस भी सफेद रंग का होता है और बगुला भी सफेद रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? जिसमें दूध और पानी अलग कर देने का विवेक होता है वही हंस होता है और विवेकहीन बगुला बगुला ही होता है।

काको कृष्णः पिको कृष्णः को भेदो पिककाकयो।
वसन्तकाले संप्राप्ते काको काकः पिको पिकः॥३८॥


कोयल भी काले रंग की होती है और कौवा भी काले रंग का ही होता है फिर दोनों में क्या भेद (अन्तर) है? वसन्त ऋतु के आगमन होते ही पता चल जाता है कि कोयल कोयल होती है और कौवा कौवा होता है।

न चौर्यहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत व नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम॥४१॥


न तो इसे चोर चुरा सकता है, न ही राजा इसे ले सकता है, न ही भाई इसका बँटवारा कर सकता है और न ही इसका कंधे पर बोझ होता है; इसे खर्च करने पर सदा इसकी वृद्धि होती है, ऐसा विद्याधन सभी धनों में प्रधान है।

हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना॥४२॥


जो चोरों दिखाई नहीं पड़ता, किसी को देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, विद्या के अतिरिक्त ऐसा अन्य कौन सा द्रव्य है?

विद्या नाम नरस्य कीर्तिर्तुला भाग्यक्षये चाश्रयो।
धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा॥४३॥
सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम्।
तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु॥४४॥


विद्या मनुष्य की अनुपम कीर्ति है, भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, विद्या कामधेनु है, विरह में रति समान है, विद्या ही तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल की महिमा है, बिना रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन!

विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्॥४५॥


विद्या विनय देती है; विनय से पात्रता प्राप्त होती है, पात्रता से धन प्राप्त होता है, धन से धर्म की प्राप्ति होती है, और धर्म से सुख प्राप्त होता है।

विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य।
कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम्॥४६॥


विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य के चित्त को नहीं हरते? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहि देता? (अर्थात् विद्या और विनय का संयोग सोने और मणि के संयोग के समान है।)

विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्॥४७॥


कुरुप का रुप विद्या है, तपस्वी का रुप क्षमा है, कोकिला का रुप स्वर है, और स्त्री का रुप पातिव्रत्य है ।

कुत्र विधेयो यत्नः विद्याभ्यासे सदौषधे दाने।
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु॥४८॥


यत्न किस के लिए करना चाहिए? विद्याभ्यास, सदौषध और परोपकार के लिए। अनादर किसका करना ? दुर्जन, परायी स्त्री और परधन का।

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः॥४९॥


रुपसम्पन्न, यौवनसम्पन्न और विशाल कुल में उत्पन्न व्यक्ति भी विद्याहीन होने पर, सुगंधरहित केसुड़े के फूल की भाँति, शोभा नहीं देता।

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥५०॥


अपने बालक को न पढ़ाने वाले माता व पिता अपने ही बालक के शत्रु हैं, क्योंकि हंसो के बीच बगुले की भाँति, विद्याहीन मनुष्य विद्वानों की सभा में शोभा नहीं देता।

दुर्जनः प्रियवादीति नैतद् विश्वासकारणम्।
मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे हृदये तु हलाहलम्॥३९॥


दुर्जन व्यक्ति यदि प्रिय (मधुर लगने वाली) वाणी भी बोले तो भी उसका विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि उसे जबान पर (प्रिय वाणी रूपी) मधु होने पर भी हृदय में हलाहल (विष) ही भरा होता है।

सर्पदुर्जनयोर्मध्ये वरं सर्पो न दुर्जनः।
सर्पो दशती कालेन दुर्जनस्तु पदे पदे॥४०॥


(यदि साँप और दुष्ट की तुलना करें तो) साँप दुष्ट से अच्छा है क्योंकि साँप कभी-कभार ही डँसता है पर दुष्ट पग-पग पर (प्रत्येक समय) डँसता है।

वरं एको गुणी पुत्रो न च मूर्खशतान्यपि।
एकश्चंद्रस्तमो हन्ति न च तारागणोऽपि च॥५१॥


सौ मूर्ख पुत्र होने की अपेक्षा एक गुणवान पुत्र होना श्रेष्ठ है, अन्धकार का नाश केवल एक चन्द्रमा ही कर देता है पर तारों के समूह नहीं कर सकते।

विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेष धनं मतिः।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम्॥५२॥


परदेस में रहने के लिए विद्या ही धन है, व्यसनी व्यक्ति के लिए चातुर्य ही धन है, परलोक की कामना करने वाले के लिए धर्म ही धन हैं किन्तु शील (सदाचार) सर्वत्र (समस्त स्थानों के लिए) ही धन है।

अल्पानामपि वस्तूनां संहति कार्यसाधिका।
तृणैर्गुत्वमापन्नैर्बध्यन्ते मत्तदन्तिनः॥५३॥


इस सुभाषित में यह सन्देश दिया गया है कि छोटी-छोटी बातों के समायोजन से बड़ा कार्य सिद्ध हो जाता है जैसे कि तृणों को जोड़कर बनाई गई डोर हाथी को बाँध देता है।

अतिपरिचयादवज्ञा संततगमनात् अनादरो भवति।
मलये भिल्ला पुरन्ध्री चन्दनतरुकाष्ठमं इन्धनं कुरुते॥५४॥


अतिपरिचय (बहुत अधिक नजदीकी) अवज्ञा और किसी के घर बार बार जाना अनादर का कारण बन जाता है जैसे कि मलय पर्वत की भिल्लनी चंदन के लकड़ी को ईंधन के रूप में जला देती है।

इसी बात को कवि वृन्द ने इस प्रकार से कहा हैः

अति परिचै ते होत है, अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि की भीलनी चन्दन देति जराय॥


सर्पः क्रूरः खलः क्रूरः सर्पात् क्रूरतरः खलः।
सर्पः शाम्यति मन्त्रैश्च दुर्जनः केन शाम्यति॥५५॥


साँप भी क्रूर होता है और दुष्ट भी क्रूर होता है किन्तु दुष्ट साँप से अधिक क्रूर होता है क्योंकि साँप के विष का तो मन्त्र से शमन हो सकता है किन्तु दुष्ट के विष का शमन किसी प्रकार से नहीं हो सकता।

लालयेत् पंच वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्॥५६॥


पाँच वर्ष की अवस्था तक पुत्र का लाड़ करना चाहिए, दस वर्ष की अवस्था तक (उसी की भलाई के लिए) उसे ताड़ना देना चाहिए और उसके सोलह वर्ष की अवस्था प्राप्त कर लेने पर उससे मित्रवत व्यहार करना चाहिए।

सम्पूर्ण कुंभो न करोति शब्दं अर्धोघटो घोषमुपैति नूनम्।
विद्वान कुलीनो न करोति गर्वं गुणैर्विहीना बहु जल्पयंति॥५७॥


जिस प्रकार से आधा भरा हुआ घड़ा अधिक आवाज करता है पर पूरा भरा हुआ घड़ा जरा भी आवाज नहीं करता उसी प्रकार से विद्वान अपनी विद्वता पर घमण्ड नहीं करते जबकि गुणविहीन लोग स्वयं को गुणी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।

मूर्खा यत्र न पूज्यते धान्यं यत्र सुसंचितम्।
दम्पत्यो कलहो नास्ति तत्र श्रीः स्वयमागता॥५८॥


जहाँ पर मूर्खो की पूजा नहीं होती (अर्थात् उनकी सलाह नहीं मानी जाती), धान्य को भलीभाँति संचित करके रखा जाता है और पति पत्नी के मध्य कलह नहीं होता वहाँ लक्ष्मी स्वयं आ जाती हैं।

मृगाः मृगैः संगमुपव्रजन्ति गावश्च गोभिस्तुरंगास्तुरंगैः।
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधयः सुधीभिः समानशीलव्यसनेष सख्यम्॥५९॥


हिरण हिरण का अनुरण करता है, गाय गाय का अनुरण करती है, घोड़ा घोड़े का अनुरण करता है, मूर्ख का अनुरण करता है और बुद्धिमान का अनुरण करता है। मित्रता समान गुण वालों में ही होती है।

शतेषु जायते शूरः सहस्त्रेषु च पण्डितः।
वक्ता दशसहस्त्रेष दाता भवति वान वा॥६०॥


सौ लोगों में एक शूर पैदा होता है, हजार लोगों में एक पण्डित पैदा होता है, दस हजार लोगों में एक वक्ता पैदा होता है और दाता कोई बिरला ही पैदा होता है।

अन्नदानं परं दानं विद्यादानमतः परम्।
अन्नेन क्षणिका तृप्तिः यावज्जीवं च विद्यया॥६१॥

अन्न का दान परम दान है और विद्या का दान भी परम दान दान है किन्तु दान में अन्न प्राप्त करने वाली कुछ क्षणों के लिए ही तृप्ति प्राप्त होती है जबकि दान में विद्या प्राप्त करने वाला (अपनी विद्या से आजीविका कमा कर) जीवनपर्यन्त तृप्ति प्राप्त करता है।

इस पर अंग्रेजी में भी एक कहावत इस प्रकार से हैः

“Give a man a fish; you have fed him for today. Teach a man to fish; and you have fed him for a lifetime”

मूर्खस्य पंच चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा।
क्रोधस्य दृढ़वादश्च परवाक्येषवनादरः॥६२॥

मूर्खों के पाँच लक्षण होते हैं - गर्व (अहंकार), दुर्वचन (कटु वाणी बोलना), क्रोध, कुतर्क और दूसरों के कथन का अनादर।

नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्ककाष्ठश्च मूर्खश्च न नमन्ति कदाचन॥६३॥

जिस प्रकार से फलों से लदी हुई वृक्ष की डाल झुक जाती है उसी प्रकार से गुणीजन सदैव विनम्र होते हैं किन्तु मूर्ख उस सूखी लकड़ी के समान होता है जो कभी नहीं झुकता।

वृश्चिकस्य विषं पृच्छे मक्षिकायाः मुखे विषम्।
तक्षकस्य विषं दन्ते सर्वांगे दुर्जनस्य तत्॥६४॥

बिच्छू का विष पीछे (उसके डंक में) होता है, मक्षिका (मक्खी) का विष उसके मुँह में होता है, तक्षक (साँप) का विष उसके दाँत में होता है किन्तु दुर्जन मनुष्य के सारे अंग विषैले होते हैं।

विकृतिं नैव गच्छन्ति संगदोषेण साधवः।
आवेष्टितं महासर्पैश्चनदनं न विषायते॥६५॥

जिस प्रकार से चन्द के वृक्ष से विषधर के लिपटे रहने पर भी वह विषैला नहीं होता उसी प्रकार से संगदोष (कुसंगति) होने पर भी साधुजनों के गुणों में विकृति नहीं आती।

घटं भिन्द्यात् पटं छिनद्यात् कुर्याद्रासभरोहण।
येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत्॥६६॥

घड़े तोड़कर, कपड़े फाड़कर या गधे पर सवार होकर, चाहे जो भी करना पड़े, येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहिए। (ऐसा कुछ लोगों का सिद्धान्त होता है।)

तृणानि नोन्मूलयति प्रभन्जनो मृदूनि नीचैः प्रणतानि सर्वतः।
स्वभाव एवोन्नतचेतसामयं महान्महत्स्वेव करोति विक्रम॥६७॥

जिस प्रकार से प्रचण्ड आंधी बड़े बड़े वृक्षों को जड़ से उखाड़ देता है किन्तु छोटे से तृण को नहीं उखाड़ता उसी प्रकार से पराक्रमीजन अपने बराबरी के लोगों पर ही पराक्रम प्रदर्शित करते हैं और निर्बलों पर दया करते हैं।

प्रदोषे दीपकश्चन्द्रः प्रभाते दीपको रविः।
त्रैलोक्ये दीपको धर्मः सुपुत्र कुलदीपकः॥६८॥

शाम का दीपक चन्द्रमा होता है, सुबह का दीपक सूर्य होता है, तीनों लोकों का दीपक धर्म होता है और कुल का दीपक सुपुत्र होता है।

अनारम्भो हि कार्याणां प्रथमं बुद्धिलक्षणम्।
प्रारब्धस्यान्तगमनं द्वितीयं बुद्धिलक्षणम्॥६९॥

(आलसी लोगों की) बुद्धि के दो लक्षण होते हैं - प्रथम कार्य को आरम्भ ही नहीं करना और द्वितीय भाग्य के भरोसे बैठे रहना।

परोपदेशवेलायां शिष्टाः सर्वे भवन्ति वै।
विसमरन्तीह शिष्टत्वं स्वकार्ये समुस्थिते॥७०॥

दूसरों के कष्ट में पड़ने पर हम उन्हें जो उपदेश देते हैं, स्वयं कष्ट में पड़ने पर उन्हीं उपदेशों को भूल जाते हैं।

गुणवन्तः क्लिश्यन्ते प्रायेण भवन्ति निर्गुणाः सुखिनः।
बन्धनमायान्ति शुकाः यथेष्टसंचारिणः काकाः॥७१॥


गुणवान को क्लेश भोगना पड़ता है और निर्गुण सुखी रहता है जैसे कि तोता अपनी सुन्दरता के गुण के कारण पिंजरे में डाल दिया जाता है किन्तु कौवा आकाश में स्वच्छन्द विचरण करता है।

नास्ति विद्यासमं चक्षुः नास्ति सत्यसमं तपः।
नास्ति रागसमं दुःखं नास्ति त्यागसमं सुखम्॥७२॥


विद्या के समान कोई चक्षु (आँख) नहीं है, सत्य के समान कोई तप नहीं है, राग (वासना, कामना) के समान कोई दुःख नहीं है और त्याग के समान कोई सुख नहीं है।

त्यजन्ति मित्राणि धनैर्विहीनं पुत्राश्च दाराश्च सुहृज्जनाश्च।
तमर्शवन्तं पुराश्रयन्ति अर्थो हि लोके मनुषस्य बन्धुः॥७३॥


मनुष्य के धनहीन हो जाने पर पत्नी, पुत्र, मित्र, निकट सम्बन्धी आदि सभी उसका त्याग कर देते हैं और उसके धनवान बन जाने पर वे सभी पुनः उसके आश्रय में आ जाते हैं। इस लोक में धन ही मनुष्य का बन्धु है।

कुसुमं वर्णसंपन्नं गन्धहीनं न शोभते।
न शोभते क्रियाहीनं मधुरं वचनं तथा॥७४॥


जिस प्रकार से गन्धहीन होने पर सुन्दर रंगों से सम्पन्न पुष्प शोभा नहीं देता, उसी प्रकार से अकर्मण्य होने पर मधुरभाषी व्यक्ति भी शोभा नहीं देता।

उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।
सोत्साहस्य च लोकेषु न किंचिदपि दुर्लभम्॥७५॥


जिस व्यक्ति के भीतर उत्साह होता है वह बहुत बलवान होता है। उत्साह से बढ़कर कोई अन्य बल नहीं है, उत्साह ही परम् बल है। उत्साही व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी वस्तु दुर्लभ नहीं है।

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यांविहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥७६॥


जिस प्रकार से अन्धे व्यक्ति के लिए दर्पण कुछ नहीं कर सकता उसी प्रकार से विवेकहीन व्यक्ति के लिए शास्त्र भी कुछ नहीं कर सकते।

विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्।
अमित्रादपि सद्वृत्तं अमेध्यादपि कांचनम्॥७७॥


विष से भी मिले तो अमृत को स्वीकार करना चाहिए, छोटे बच्चे से भी मिले तो सुभाषित (अच्छी सीख) को स्वीकार करना चाहिए, शत्रु से भी मिले तो अच्छे गुण को स्वीकार करना चाहिए और गंदगी से भी मिले तो सोने को स्वीकार करना चाहिए।

मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना कुण्डे कुण्डे नवं पयः।
जातौ जातौ नवाचारा नवा वाणी मुखे मुखे॥७८॥


भिन्न-भिन्न मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न मति (विचार) होती है, भिन्न-भिन्न सरोवर में भिन्न-भिन्न प्रकार का पानी होता है, भिन्न-भिन्न जाति के लोगों के भिन्न-भिन्न जीवनशैलियाँ (परम्परा, रीति-रिवाज) होती हैं और भिन्न-भिन्न मुखों से भिन्न-भिन्न वाणी निकलती है।

नरस्याभरणं रूपं रूपस्याभारणं गुनः।
गुणस्याभरणं ज्ञानं ज्ञानस्याभरणं क्षमा॥७९॥


मनुष्य का अलंकार (गहना) रूप होता है, रूप का अलंकार (गहना) गुण होता है, गुण का अलंकार (गहना) ज्ञान होता है और ज्ञान का अलंकार (गहना) क्षमा होता है।

अपूर्व कोपि कोशोयं विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धमायाति क्षयमायाति संचयात्॥८०॥


हे माता सरस्वती! आपका कोश (विद्या) बहुत ही अपूर्व है जिसे खर्च करने पर बढ़ते जाता है और संचय करने पर घटने लगता है।

इसी बात को इस प्रकार से भी कहा गया हैः

सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।
ज्यौं खरचे त्यौं त्यौं बढ़े बिन खरचे घट जात॥


व्यसने मित्रपरीक्षा शूरपरीक्षा रणाङ्गणे भवति।
विनये भृत्यपरीक्षा दानपरीक्षाच दुर्भिक्षे॥८१॥


खराब समय आने पर मित्र की परीक्षा होती है, युद्धस्थल में शूरवीर की परीक्षा होती है, नौकर की परीक्षा विनय से होती है और दान की परीक्षा अकाल पड़ने पर होती है।

राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः।
भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्य पापं गुरस्था॥८२॥


राष्ट्र के अहित का जिम्मेदार राजा का पाप होता है, राजा के पाप का जिम्मेदार उसका पुरोहित (मन्त्रीगण) होता है, स्त्री के गलत कार्य का जिम्मेदार उसका पति होता है और शिष्य के पाप का जिम्मेदार गुरु होता है।

पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद् धनम्॥८३॥


ज्ञान यदि पुस्तक में ही रहे (अर्थात् उसे पढ़ा न जाए) और स्वयं का धन यदि किसी अन्य के हाथों में हो तो आवश्यकता पड़ने पर उस ज्ञान और धन का उपयोग नहीं नहीं किया जा सकता।

अधमाः धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः।
उत्तमाः मामिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्॥८४॥


निम्न वर्ग का व्यक्ति केवल धन की इच्छा रखता है, मध्यम वर्ग का व्यक्ति धन और मान दोनों की ही इच्छा रखता है और उत्तम वर्ग का व्यक्ति केवल मान-सम्मान की इच्छा रखता है। मान-सम्मान का धन से अधिक महत्व होता है।

अतितृष्णा न कर्तव्या तृष्णां नैव परित्यजेत्।
शनैः शनैश्च भोक्व्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम्॥८५॥


बहुत अधिक इच्छाएँ करना सही नहीं है और इच्छाओं का त्याग कर देना भी सही नहीं है। अपने उपार्जित (कमाए हुए) धन के अनुरूप ही इच्छा करना चाहिए वह भी एक बार में नहीं बल्कि धीरे धीरे।

यहाँ पर उल्लेखनीय है कि आज का बाजारवाद हमें उपरोक्त सीख से उल्टा करने की ही प्रेरणा देता है, बाजारवादद के कारण ही एक बार में ही अनेक और अपने द्वारा कमाए गए धन से अधिक इच्छा करके अपने सामर्थ्य से अधिक का सामान, वह भी विलासिता लेने को हम उचित समझने लगे हैं, भले ही उसके लिए हमें कर्ज में डूब जाना पड़े।

वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि च॥८६॥


समुद्र में हुई वर्षा का कोई मतलब नहीं होता, भरपेट खाकर तृप्त हुए व्यक्ति को भोजन कराने का कोई मतलब नहीं होता, धनाढ्य व्यक्ति को दान देने का कोई मतलब नहीं होता और सूर्य के प्रकाश में दिया जलाने का कोई मतलब नहीं होता।

पबन्ति नद्यः स्वयं एव न अम्भः स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः।
न अदन्ति सस्य खलु वारिवाहा परोपकाराय सतां विभतयः॥८७॥


नदी स्वयं के जल को नहीं पीती, वृक्ष स्वयं के फल को नहीं खाते और बादल अपने द्वारा पानी बरसा कर पैदा किए गए अन्न को नहीं खाते। सज्जन हमेशा परोपकार ही करते हैं।

इसी को रहीम कवि ने इस प्रकार से कहा हैः

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्॥८८॥


महान व्यक्तियों की संगति किसे उन्नति प्रदान नहीं करती? (अर्थात् महान व्यक्तियों की संगति से उन्नति ही होती है।) कमल के फूल पर पानी की बूंद मोती के समान दिखने लगता है (अर्थात् कमल की संगत से पानी मोती बन जाता है।)

स्वभावो नोपदेशेन शक्यते कर्तुमन्यथा।
सुतप्तमपि पानीयं पुनर्गच्छति शीतताम्॥८९॥


उपदेश देकर किसी के स्वभाव को बदला नहीं जा सकता, पानी को कितना भी गरम करो, कुछ समय बाद वह फिर से ठंडा हो ही जाता है।

दानेन तुल्यो विधिरास्ति नान्यो लोभोच नान्योस्ति रिपुः पृथिव्यां।
विभूषणं शीलसमं च नान्यत् सन्तोषतुल्यं धमस्ति नान्य्॥९०॥


दान के समान अन्य कोई अच्छा कर्म नहीं है, लोभ के समान इस पृथ्वी पर कोई अन्य शत्रु नहीं है, शील के समान कोई गहना नहीं है और सन्तोष के समान कोई धन नहीं है।

परोऽपि हितवान् बन्धुः बन्धुरप्यहितः परः।
अहितो देहजो व्याधिः हितमारण्यमौषधम्॥९१॥
(हितोपदेश)

व्याधियाँ (बीमारियाँ) हमारे शरीर के भीतर रहते हुए भी हमारा बुरा करती हैं और औषधियाँ (जड़ी-बूटियाँ) हमसे दूर पेड़-पौधों में में रहकर भी हमारा भला करती हैं (अर्थात् व्याधियाँ हमारे दुश्मन हैं और औषधियाँ मित्र)। इसी प्रकार से जिनसे हमारा रक्त का सम्बन्ध अर्थात् किसी प्रकार की रिश्तेदार न हो किन्तु वह हमारा हित करे तो वे अपने होते हैं और यदि रिश्तेदार होकर भी कोई हमारा अहित करे तो वह पराया होता है।

अहो दुर्जनसंसर्गात् मानहानिः पदे पदे।
पावको लौहसंगेन मुद्गरैरभिताड्यते॥९२॥


दुष्ट के संग रहने पर कदम कदम पर अपमान होता है। पावक (अग्नि) जब लोहे के साथ होता है तो उसे घन से पीटा जाता है।

चिता चिन्तासम ह्युक्ता बिन्दुमात्र विशेषतः।
सजीवं दहते चिन्ता निर्जीवं दहते चिता॥९३॥


चिता और चिंता में मात्र एक बिन्दु (अनुस्वार) का ही फर्क है किन्तु दोनों ही एक समान है, जो जीते जी जलाता है वह चिंता है और जो मरने के बाद (निर्जीव) को जलाता है वह चिता है।

अङ्गणवेदी वसुधा कुल्या जलधिः स्थली च पातालम्।
वल्मीकश्च सुमेरुः कृतप्रतिज्ञस्य धीरस्य॥९४॥


अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने वाले धीर व्यक्ति के लिए यह वसुधा (पृथ्वी) एक बगिया के समान होता है (जब चाहे घूम कर जी बहला लो), समुद्र एक नहर के समान होता है (जब चाहे तैर कर पार कर लो), पाताल लोक एक मनोरंजन स्थल (पिकनिक स्पॉट) के समान होता है (जब जाहे जाकर पिकनिक मना लो) और सुमेरु पर्वत एक चींटी के घर के समान होता है (जब चाहे चोटी पर चढ़ जाओ)। (अतः मनुष्य को दृढ़प्रतिज्ञ एवं धीर-गम्भीर होना चाहिए।)

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भूविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥९५॥


विद्या, तप (कठिन परिश्रम कर पाने की योग्यता), दानशीलता, शील, गुण तथा धर्म से विहीन व्यक्ति मृत्युलोक (पृथ्वी) पर भार के समान है, वह मनुष्य के रूप में पशु ही है।

माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥९६॥


माता, पिता और मित्र तीनों ही स्वभावतः ही हमारे हित के लिए सोचते हैं, वे हमारे हित करने के बदले में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते। इन तीनों के सिवाय अन्य लोग यदि हमारे हित की सोचते हैं तो वे उसके बदले में हमसे कुछ न कुछ अपेक्षा भी रखते हैं।

वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥९७॥


सदैव प्रसन्न-वदन (हँसमुख), हृदय में दया की भावना रखने वाले, अमृत के समान मीठे वचन बोलने वाले तथा परोपकार में लिप्त रहने वाले व्यक्ति भला किसके लिए वन्दनीय नहीं होगा?

गर्वाय परपीड़ाय दुर्जस्य धनं बलम्।
सज्जनस्य दानाय रक्षणाय च ते सदा॥९८॥


दुर्जन (दुष्ट) का धन और बल गर्व (घमण्ड) तथा दूसरों को पीड़ा पहुँचाना होता है और दान एवं (निर्बलों की) रक्षा करना सज्जन का।

यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः।
चित्ते वाचि क्रियायां च साधुनामेकरूपता॥९९॥


जो चित्त (मन) में हो वही वाणी से प्रकट होना चाहिए और जो वाणी से प्रकट हो उसके अनुरूप ही कार्य करना चाहिए। जिनके चित्त, वाणी और कर्म में एकरूपता होती है वही साधुजन होते हैं।

छायामन्यस्य कुर्वन्ति स्वयं तिष्टन्ति चातपे।
फलान्यपि परार्थाय वृक्षाः सत्पुरुष इव॥१००॥


वृक्ष स्वयं सूर्य के प्रखर ताप को सहन करके दूसरों को छाया प्रदान करते हैं तथा उनके फल भी दूसरों के उपयोग के लिए होते हैं, वृक्ष के समान सत्पुरुष भला कौन है?