Monday, June 26, 2023

Chanakya Slokas (चाणक्य नीति श्लोक) - 1

 Chanakya was an Indian teacher, economist and a political adviser. He is also known as Kautilya or Vishnu Gupta. Even as a child, Chanakya had the qualities of a born leader. His level of knowledge was beyond children of his age.

He played a key role in the establishment of the Maurya dynasty. Chanakya slokas are useful slokas for our day-to-day life and environment. His slokas give us very valuable insight into society and political life. Chanakya (चाणक्य) is one of the greatest people in the ancient Indian history. 

Here is best collection of Chanakya's Slokas Or Quotes in Sanskrit with Hindi meanings:


कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:। अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥

 भावार्थ : न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं ।

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥

 भावार्थ :मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥

 भावार्थ :दुष्ट पत्नी , शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में रहना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिए ।

धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥

 भावार्थ :जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।

जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे। मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥

 भावार्थ :किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।


यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥

 भावार्थ :जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए । 

माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥

 भावार्थ :जिसके घर में न माता हो और न स्त्री प्रियवादिनी हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।

आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि। आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥

 भावार्थ : विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए । किन्तु अपनी रक्षा का प्रसन सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो नहीं चूकना चाहिए ।

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥

 भावार्थ : जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसण्कटे। राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः ॥

 भावार्थ : जब कोई बीमार होने पर, असमय शत्रु से घिर जाने पर, राजकार्य में सहायक रूप में तथा मृत्यु पर श्मशान भूमि में ले जाने वाला व्यक्ति सच्चा मित्र और बन्धु है ।


भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर वरांगना । विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥

 भावार्थ : भोज्य पदाथ, भोजन-शक्ति, रतिशक्ति, सुन्दर स्त्री, वैभव तथा दान-शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्या का फल नहीं होते ।

यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी। विभवे यस्य सन्तुष्टिस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ॥

 भावार्थ : जिसका पुत्र वशीभूत हो, पत्नी वेदों के मार्ग पर चलने वाली हो और जो वैभव से सन्तुष्ट हो, उसके लिए यहीं स्वर्ग है ।

ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः सः पिता यस्तु पोषकः। तन्मित्रं यत्र विश्वासः सा भार्या या निवृतिः ॥

 भावार्थ : पुत्र वही है, जो पिता का भक्त है । पिता वही है,जो पोषक है, मित्र वही है, जो विश्वासपात्र हो । पत्नी वही है, जो हृदय को आनन्दित करे ।

कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम्। कष्टात्कष्टतरं चैव परगृहेनिवासनम् ॥

 भावार्थ : मूर्खता कष्ट है, यौवन भी कष्ट है, किन्तु दूसरों के घर में रहना कष्टों का भी कष्ट है ।

माता शत्रुः पिता वैरी येनवालो न पाठितः। न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ॥

 भावार्थ : बच्चे को न पढ़ानेवाली माता शत्रु तथा पिता वैरी के समान होते हैं । बिना पढ़ा व्यक्ति पढ़े लोगों के बीच में कौए के समान शोभा नहीं पता । 

परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥

 भावार्थ : पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाले था सामने प्रिय बोलने वाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए ।

न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्। कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत् ॥

 भावार्थ : कुमित्र पर विश्वास नहीं करना चाहिए और मित्र पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए । कभी कुपित होने पर मित्र भी आपकी गुप्त बातें सबको बता सकता हैं ।

मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्। मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्य चापि नियोजयेत् ॥

 भावार्थ : मन में सोचे हुए कार्य को मुंह से बाहर नहीं निकालना चाहिए । मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिए । गुप्त रखकर ही उस काम को करना भी चाहिए ।

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे। साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥

 भावार्थ : न प्रत्येक पर्वत पर मणि-माणिक्य ही प्राप्त होते हैं न प्रत्येक हाथी के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है । संसार में मनुष्यों की कमी न होने पर भी साधु पुरुष नहीं मिलते । इसी प्रकार सभी वनों में चन्दन के वृक्ष उपलब्ध नही होते ।

लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः। तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ॥

 भावार्थ : अधिक लाड़ से अनेक दोष तथा अधिक ताड़न से गुण आते हैं । इसलिए पुत्र और शिष्य को लालन की नहीं ताड़न की आवश्यकता होती है । 

बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा। बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता ॥

 भावार्थ : विद्या ही ब्राह्मणों का बल है । राजा का बल सेना है । वैश्यों का बल धन है तथा सेवा करना शूद्रों का बल है ।

दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः। यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति ॥

 भावार्थ : दुराचारी, दुष्ट स्वभाववाला, बिना किसी कारण दूसरों को हानि पहुँचानेवाला तथा दुष्ट व्यक्ति से मित्रता रखने वाला श्रेष्ठ पुरुष भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते है क्यूोंकि संगति का प्रभाव बिना पड़े नहीं रहता है ।

समाने शोभते प्रीती राज्ञि सेवा च शोभते। वाणिज्यं व्यवहारेषु स्त्री दिव्या शोभते गृहे ॥

 भावार्थ : समान स्तरवालों से ही मित्रता शोभा देती है । सेवा राजा की शोभा देती है । वैश्यों को व्यपार करना ही सोभा देता है । शुभ स्त्री घर की शोभा है

यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवं परिसेवते। ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति चाध्रुवं नष्टमेव तत् ॥

 भावार्थ : जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित का सहारा लेता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है ।अनिश्चित तो स्वयं नष्ट होता ही है ।

वरयेत्कुलजां प्राज्ञो निरूपामपि कन्यकाम्। रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले ॥

 भावार्थ : बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह रूपवती न होने पर भी कुलीन कन्या से विवाह कर ले, किन्तु नीच कुल की कन्या यदि रूपवती तथा सुशील भी हो, तो उससे विवाह न करे । क्योँकि विवाह समान कुल में ही करनी चाहिए । 

कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः। व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ॥

 भावार्थ : किसके कुल में दोष नहीं होता ? रोग किसे दुःखी नहीं करते ? दुःख किसी नहीं मिलता और निरंतर सुखी कौन रहता है अर्थात कुछ न कुछ कमी तो सब जगह है और यह एक कड़वी सच्चाई है । 

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्। सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥

 भावार्थ : आचरण से व्यक्ति के कुल का परिचय मिलता है । बोली से देश का पता लगता है । आदर-सत्कार से प्रेम का तथा शरीर को देखकर व्यक्ति के भोजन का पता चलता है ।

सकुले योजयेत्कन्या पुत्रं पुत्रं विद्यासु योजयेत्। व्यसने योजयेच्छत्रुं मित्रं धर्मे नियोजयेत् ॥

 भावार्थ : कन्या का विवाह किसी अच्छे घर में करनी चाहिए, पुत्र को पढ़ाई-लिखाई में लगा देना चाहिए, मित्र को अच्छे कार्यो में तथा शत्रु को बुराइयों में लगा देना चाहिए । यही व्यवहारिकता है और समय की मांग भी

दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं सर्पो न दुर्जनः। सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे-पदे ॥

 भावार्थ : दुष्ट और साँप, इन दोनों में साँप अच्छा है, न कि दुष्ट । साँप तो एक ही बार डसता है, किन्तु दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है ।

एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम्। आदिमध्यावसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम् ॥

 भावार्थ : कुलीन लोग आरम्भ से अन्त तक साथ नहीं छोड़ते । वे वास्तव में संगति का धर्म निभाते हैं । इसलिए राजा लोग कुलीन का संग्रह करते हैं ताकि समय-समय पर सत्परामर्श मिल सके ।

Thursday, December 9, 2021

संस्कृत में सुविचार

 परोपकारशून्यस्य धिक् मनुष्यस्य जीवितम् ।

जीवन्तु पशवो येषां चर्माप्युपकरिष्यति ॥
-सुभाषित रत्नावली
परोपकार रहित मानव के जीवन को धिक्कार है ।
वे पशु धन्य है, मरने के बाद जिनका चमडा भी उपयोग में आता है ।


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यस्मिन् जीवति जीवन्ति बहव: स तु जीवति।
काकोऽपि किं न कुरूते चञ्च्वा स्वोदरपूरणम्।।
जिसके जीने से कई लोग जीते हैं, वह जीया कहलाता है,
अन्यथा क्या कौआ भी चोंच से अपना पेट नहीं भरता ?


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एकः शत्रु र्न द्वितीयोऽस्ति शत्रुः ।
अज्ञानतुल्यः पुरुषस्य राजन् ॥
-महाभारत
हे राजन् ! इन्सान का एक ही शत्रु है, अन्य कोई नहीं; वह है अज्ञान ।



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षड् दोषा: पुरूषेण इह,हातव्या भूतिमिच्छता ।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध:,आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
-विदुर नीति
ऐश्वर्य या उन्नति चाहने वाले पुरूषों को -
निद्रा, तन्द्रा , डर, क्रोध , आलस्य एवं दीर्घसूत्रता -
ये छ: दुर्गुण छोड़ देना चाहिए ।

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आयुष क्षण एकोऽपि न लभ्य: स्वर्णकोटिभि: ।
स चेन्निरर्थकं नीतः का नु हानिस्ततोधिका? ॥
-चाणक्य नीति
जीवन का एक क्षण भी कोटि स्वर्णमुद्रा देने पर भी नहीं मिल सकता । वह यदि नष्ट हो जाय तो इससे अधिक हानि क्या हो सकती है ?

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दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः ।
तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥
लंबी शाल तथा खेस इत्यादि धारण किया हुआ मूर्ख दूर से शोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही शोभित होता है जब तक कुछ बोलता नहीं है!



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Wednesday, December 23, 2020

धर्म क्या है? धर्म के प्रकार? हमारा क्या धर्म है?

 धर्म क्या है.....?

प्रश्न एकदम सरल व सहज़ है
पर उत्तर ज़रा जटिल है
मैंने भी सुना है---
देह का धर्म, हाथ का धर्म, मानव धर्म, पड़ोसी धर्म, मित्र धर्म
शत्रु धर्म, युद्ध धर्म, धर्म युद्ध
इसके अलावा भी धर्म है।
हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, सिक्ख धर्म, जैन धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, बौद्ध धर्म आदि आदि|
और भी दूसरे धर्म हैं।
इंसानियत का धर्म, मानवता का धर्म, परोपकार का धर्म, समाज का धर्म, राष्ट्र का धर्म, न्याय का धर्म, इसमें आपके मन भाने वाला धर्म भी है।

मज़हब धर्म नहीं होता, रिलीज़न धर्म नहीं होता, धर्म में भ्रम नहीं होता, भ्रम में धर्म नहीं होता

मंथन के पश्चात का निष्कर्ष निकला-
अहिंसा परमो धर्म:
जहाँ दया तहँ धर्म
मानवता सबसे बड़ा धर्म।
सच्चा व्यवहार धर्म है।
नेक नियति का राह धर्म है।
परमारथ का काज धर्म है।

Tuesday, December 15, 2020

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ 

अर्थ - "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।"


परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः । 
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् ॥

 भावार्थ :
कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए । और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए । ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुँचाने लगती है । जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है ।

चिन्तनीया हि विपदां आदावेव प्रतिक्रिया।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्त वान्हिना गृहे॥

भावार्थ :
जिस प्रकार से घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदना आरम्भ करना युक्तिपूर्ण (सही) कार्य नहीं है उसी प्रकार से विपत्ति के आ जाने पर चिन्तित होना भी उपयुक्त कार्य नहीं है। (किसी भी प्रकार की विपत्ति से निबटने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।)

गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥

भावार्थ :
उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है ।
इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा जाते हैं ।

लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ॥

भावार्थ :
लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है,
लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है,
अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है ।

Friday, December 11, 2020

विद्या का महत्व Importance of Knowledge in Life

सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् । सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥

 भावार्थ :

जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की ईच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की ।

न चोरहार्यं न च राजहार्यंन भ्रातृभाज्यं न च भारकारी । व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥

 भावार्थ :

विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों में उसका भाग नहीं होता, उसका भार नहीं लगता, (और) खर्च करने से बढता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।

नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् । नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥

 भावार्थ :

विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं ।

ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते । दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥

 भावार्थ :

यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहीं सकता, जिसे चोर ले जा नहीं सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहीं होता ।

सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् । अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥

 भावार्थ :

सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता, और उसका कभी नाश नहीं होता ।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥

 भावार्थ :

विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है ।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥

 भावार्थ :

आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः । विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥

 भावार्थ :

रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते ।

विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

 भावार्थ :

विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।

विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

 भावार्थ :

विद्या से विनय (नम्रता) आती है, विनय से पात्रता (सजनता) आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।

दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले । श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥

 भावार्थ :

सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् । क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥

 भावार्थ :

एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?

विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा । सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम् तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥

 भावार्थ :

विद्या अनुपम कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन ।

नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:। नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥

 भावार्थ :

विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।

गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा। अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥

 भावार्थ :

विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ।

अर्थातुराणां न सुखं न निद्रा कामातुराणां न भयं न लज्जा । विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न रुचि न बेला ॥

 भावार्थ :

अर्थातुर को सुख और निद्रा नहीं होते, कामातुर को भय और लज्जा नहीं होते । विद्यातुर को सुख व निद्रा, और भूख से पीडित को रुचि या समय का भान नहीं रहता ।

पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् । मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥

 भावार्थ :

पढनेवाले को मूर्खत्व नहीं आता; जपनेवाले को पातक नहीं लगता; मौन रहनेवाले का झघडा नहीं होता; और जागृत रहनेवाले को भय नहीं होता ।

विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

 भावार्थ :

विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।

विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया । यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥

 भावार्थ :

विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छे जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं ।

गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः । अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥

 भावार्थ :

गाकर पढना, शीघ्रता से पढना, पढते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ जाना, अर्थ न जानकर पढना, और धीमा आवाज होना ये छे पाठक के दोष हैं ।

सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे । शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥

 भावार्थ :

सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहीं । तोता भी “राम राम” बोलने से खुराक पा हि लेता है ।

मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् । लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम् किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥

 भावार्थ :

विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है । सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या क्या सिद्ध नहीं करती ?

विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य । कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥

 भावार्थ :

विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहीं करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहीं देता ?

हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता । कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥

 भावार्थ :

जो चोरों के नजर पडती नहीं, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा अन्य कौन सा द्रव्य हो सकता है ?

द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता । स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥

 भावार्थ :

जुआ, वाद्य, नाट्य (कथा/फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छे विद्या में विघ्नरुप होते हैं ।

 

Thursday, December 10, 2020

प्रार्थना श्लोक || sanskrit prayer slokas

वक्र तुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ: । 
निर्विघ्नं कुरु मे देव शुभ कार्येषु सर्वदा ॥ 

भावार्थ : हे हाथी के जैसे विशालकाय जिसका तेज सूर्य की सहस्त्र किरणों के समान हैं । बिना विघ्न के मेरा कार्य पूर्ण हो और सदा ही मेरे लिए शुभ हो ऐसी कामना करते है ।

शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसंपद: । 
शत्रुबुध्दिविनाशाय दीपजोतिर्नामोस्तुते ॥ 

भावार्थ : ऐसे देवता को प्रणाम करती हूँ ,जो कल्याण करता है, रोग मुक्त रखता है, धन सम्पदा देता हैं, जो विपरीत बुध्दि का नाश करके मुझे सद मार्ग दिखाता हैं, ऐसी दीव्य ज्योति को मेरा परम नम: । 

या देवी सर्वभूतेशु, शक्तिरूपेण संस्थिता । 
नमस्तसयै, नमस्तसयै, नमस्तसयै नमो नम: ॥ 

भावार्थ : देवी सभी जगह व्याप्त है जिसमे सम्पूर्ण जगत की शक्ति निहित है ऐसी माँ भगवती को मेरा प्रणाम, मेरा प्रणाम, मेरा प्रणाम । 

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । 
शरण्ये त्र्म्बकें गौरी नारायणि नमोस्तुते ॥ 

भावार्थ : जो सभी में श्रेष्ठ है, मंगलमय हैं जो भगवान शिव की अर्धाग्नी हैं जो सभी की इच्छाओं को पूरा करती हैं ऐसी माँ भगवती को नमस्कार करती हूँ । 

या कुंदेंदुतुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता । 
या वीणावरदण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना ॥ 
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता । 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा ॥ 

भावार्थ : जो विद्या देवी कुंद के पुष्प, शीतल चन्द्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह श्वेत वर्ण की है और जिन्होंने श्वेत वर्ण के वस्त्र धारण किये हुए है, जिनके हाथ में वीणा शोभायमान है और जो श्वेत कमल पर विराजित हैं तथा ब्रह्मा,विष्णु और महेश और सभी देवता जिनकी नित्य वन्दना करते है वही अज्ञान के अन्धकार को दूर करने वाली माँ भगवती हमारी रक्षा करें 

ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मॄत्योर्मा अमॄतं गमय ॥ 

भावार्थ : हे प्रभु! असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर मेरी गति हो ।

संस्कृत गिनती (Counting in sanskrit )


1 - एकम्
2 - द्वे
3 - त्रीणि्
4 - चत्वारि
5 - पञ्च्
6 - षट्
7 - सप्त
8 - अष्ट
9 - नव्
10 - दश
11 - एकादश्
12 - द्वादश
13 - त्रयोदश्
14 - चतुर्दश
15 - पञ्चदश्
16 - षोडशे
17 - सप्तदश्
18 - अष्टादश
19 - नवदश्
20 - विंशतिः
21 - एकविंशतिः
22 - द्वाविंशतिः
23 - त्रयोविंशतिः
24 - चतुर्विंशतिः
25 - पञ्चविंशतिः
26 - षड्विंशतिः
27 - सप्तविंशतिः
28 - अष्टाविंशतिः
29 - नवविंशतिः
30 - त्रिंशत्
31 - एकत्रिंशत्
32 - द्वात्रिंशत्
33 - त्रयस्त्रिंशत्
34 - चतुस्त्रिंशत्
35 - पञ्चत्रिंशत्
36 - षट्त्रिंशत्
37 - सप्तत्रिंशत्
38 - अष्टत्रिंशत्
39 - नवत्रिंशत्
40 - चत्वारिंशत्
41 - एकचत्वारिंशत्
42 - द्विचत्वारिंशत्
43 - त्रिचत्वारिंशत्
44 - चतुश्चत्वारिंशत्
45 - पञ्चचत्वारिंशत्
46 - षट्चत्वारिंशत्
47 - सप्तचत्वारिंशत्
48 - अष्टचत्वारिंशत्
49 - नवचत्वारिंशत्
50 - पञ्चाशत्
51 - एकपञ्चाशत्
52 - द्विपञ्चाशत्
53 - त्रिपञ्चाशत्
54 - चतुःपञ्चाशत्
55 - पञ्चपञ्चाशत्
56 - षट्पञ्चाशत्
57 - सप्तपञ्चाशत्
58 - अष्टपञ्चाशत्
59 - नवपञ्चाशत्
60 - षष्टिः
61 - एकषष्टिः
62 - द्विषष्टिः
63 - त्रिषष्टिः
64 - चतुःषष्टिः
65 - पञ्चषष्टिः
66 - षट्षष्टिः
67 - सप्तषष्टिः
68 - अष्टषष्टिः
69 - नवषष्टिः
70 - सप्ततिः
71 - एकसप्ततिः
72 - द्विसप्ततिः
73 - त्रिसप्ततिः
74 - चतुःसप्ततिः
75 - पञ्चसप्ततिः
76 - षट्सप्ततिः
77 - सप्तसप्ततिः
78 - अष्टसप्ततिः
79 - नवसप्ततिः
80 - अशीतिः
81 - एकाशीतिः
82 - द्व्यशीतिः
83 - त्र्यशीतिः
84 - चतुरशीतिः
85 - पञ्चाशीतिः
86 - षडशीतिः
87 - सप्ताशीतिः
88 - अष्टाशीतिः
89 - नवाशीतिः
90 - नवतिः
91 - एकनवतिः
92 - द्विनवतिः
93 - त्रिनवतिः
94 - चतुर्नवतिः
95 - पञ्चनवतिः
96 - षण्णवतिः
97 - सप्तनवतिः
98 - अष्टनवतिः
99 - नवनवतिः
100 - शतम्