Tuesday, December 15, 2020

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः

ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत्।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥ 

अर्थ - "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।"


परो अपि हितवान् बन्धुः बन्धुः अपि अहितः परः । 
अहितः देहजः व्याधिः हितम् आरण्यं औषधम् ॥

 भावार्थ :
कोई अपरिचित व्यक्ति भी अगर आपकी मदद करे, तो उसे परिवार के सदस्य की तरह महत्व देना चाहिए । और अगर परिवार का कोई अपना सदस्य भी आपको नुकसान पहुंचाए तो उसे महत्व देना बंद कर देना चाहिए । ठीक उसी तरह जैसे शरीर के किसी अंग में कोई बीमारी हो जाए, तो वह हमें तकलीफ पहुँचाने लगती है । जबकि जंगल में उगी हुई औषधी हमारे लिए लाभकारी होती है ।

चिन्तनीया हि विपदां आदावेव प्रतिक्रिया।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्त वान्हिना गृहे॥

भावार्थ :
जिस प्रकार से घर में आग लग जाने पर कुँआ खोदना आरम्भ करना युक्तिपूर्ण (सही) कार्य नहीं है उसी प्रकार से विपत्ति के आ जाने पर चिन्तित होना भी उपयुक्त कार्य नहीं है। (किसी भी प्रकार की विपत्ति से निबटने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।)

गतवयसामपि पुंसां येषामर्था भवन्ति ते तरुणाः ।
अर्थे तु ये हीना वृद्धास्ते यौवनेऽपि स्युः ॥

भावार्थ :
उम्र ढल जाने पर भी वे पुरुष युवा रहते हैं जिनके पास धन रहता है ।
इसके विपरीत जो धन से क्षीण होते हैं वे युवावस्था में भी बुढ़ा जाते हैं ।

लोभमूलानि पापानि संकटानि तथैव च।
लोभात्प्रवर्तते वैरं अतिलोभात्विनश्यति ॥

भावार्थ :
लोभ पाप और सभी संकटों का मूल कारण है,
लोभ शत्रुता में वृद्धि करता है,
अधिक लोभ करने वाला विनाश को प्राप्त होता है ।

Friday, December 11, 2020

विद्या का महत्व Importance of Knowledge in Life

सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् । सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥

 भावार्थ :

जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की ईच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की ।

न चोरहार्यं न च राजहार्यंन भ्रातृभाज्यं न च भारकारी । व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥

 भावार्थ :

विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों में उसका भाग नहीं होता, उसका भार नहीं लगता, (और) खर्च करने से बढता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।

नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् । नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥

 भावार्थ :

विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं ।

ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते । दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥

 भावार्थ :

यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहीं सकता, जिसे चोर ले जा नहीं सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहीं होता ।

सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् । अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥

 भावार्थ :

सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता, और उसका कभी नाश नहीं होता ।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥

 भावार्थ :

विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है ।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् । अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥

 भावार्थ :

आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ?

रूपयौवनसंपन्ना विशाल कुलसम्भवाः । विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥

 भावार्थ :

रुपसंपन्न, यौवनसंपन्न, और चाहे विशाल कुल में पैदा क्यों न हुए हों, पर जो विद्याहीन हों, तो वे सुगंधरहित केसुडे के फूल की भाँति शोभा नहीं देते ।

विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

 भावार्थ :

विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।

विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्। पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥

 भावार्थ :

विद्या से विनय (नम्रता) आती है, विनय से पात्रता (सजनता) आती है पात्रता से धन की प्राप्ति होती है, धन से धर्म और धर्म से सुख की प्राप्ति होती है ।

दानानां च समस्तानां चत्वार्येतानि भूतले । श्रेष्ठानि कन्यागोभूमिविद्या दानानि सर्वदा ॥

 भावार्थ :

सब दानों में कन्यादान, गोदान, भूमिदान, और विद्यादान सर्वश्रेष्ठ है ।

क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् । क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥

 भावार्थ :

एक एक क्षण गवाये बिना विद्या पानी चाहिए; और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए । क्षण गवानेवाले को विद्या कहाँ, और कण को क्षुद्र समजनेवाले को धन कहाँ ?

विद्या नाम नरस्य कीर्तिरतुला भाग्यक्षये चाश्रयो धेनुः कामदुधा रतिश्च विरहे नेत्रं तृतीयं च सा । सत्कारायतनं कुलस्य महिमा रत्नैर्विना भूषणम् तस्मादन्यमुपेक्ष्य सर्वविषयं विद्याधिकारं कुरु ॥

 भावार्थ :

विद्या अनुपम कीर्ति है; भाग्य का नाश होने पर वह आश्रय देती है, कामधेनु है, विरह में रति समान है, तीसरा नेत्र है, सत्कार का मंदिर है, कुल-महिमा है, बगैर रत्न का आभूषण है; इस लिए अन्य सब विषयों को छोडकर विद्या का अधिकारी बन ।

नास्ति विद्या समं चक्षु नास्ति सत्य समं तप:। नास्ति राग समं दुखं नास्ति त्याग समं सुखं॥

 भावार्थ :

विद्या के समान आँख नहीं है, सत्य के समान तपस्या नहीं है, आसक्ति के समान दुःख नहीं है और त्याग के समान सुख नहीं है ।

गुरु शुश्रूषया विद्या पुष्कलेन् धनेन वा। अथ वा विद्यया विद्या चतुर्थो न उपलभ्यते॥

 भावार्थ :

विद्या गुरु की सेवा से, पर्याप्त धन देने से अथवा विद्या के आदान-प्रदान से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त विद्या प्राप्त करने का चौथा तरीका नहीं है ।

अर्थातुराणां न सुखं न निद्रा कामातुराणां न भयं न लज्जा । विद्यातुराणां न सुखं न निद्रा क्षुधातुराणां न रुचि न बेला ॥

 भावार्थ :

अर्थातुर को सुख और निद्रा नहीं होते, कामातुर को भय और लज्जा नहीं होते । विद्यातुर को सुख व निद्रा, और भूख से पीडित को रुचि या समय का भान नहीं रहता ।

पठतो नास्ति मूर्खत्वं अपनो नास्ति पातकम् । मौनिनः कलहो नास्ति न भयं चास्ति जाग्रतः ॥

 भावार्थ :

पढनेवाले को मूर्खत्व नहीं आता; जपनेवाले को पातक नहीं लगता; मौन रहनेवाले का झघडा नहीं होता; और जागृत रहनेवाले को भय नहीं होता ।

विद्याभ्यास स्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः । अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं परम् ॥

 भावार्थ :

विद्याभ्यास, तप, ज्ञान, इंद्रिय-संयम, अहिंसा और गुरुसेवा – ये परम् कल्याणकारक हैं ।

विद्या वितर्को विज्ञानं स्मृतिः तत्परता क्रिया । यस्यैते षड्गुणास्तस्य नासाध्यमतिवर्तते ॥

 भावार्थ :

विद्या, तर्कशक्ति, विज्ञान, स्मृतिशक्ति, तत्परता, और कार्यशीलता, ये छे जिसके पास हैं, उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं ।

गीती शीघ्री शिरः कम्पी तथा लिखित पाठकः । अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥

 भावार्थ :

गाकर पढना, शीघ्रता से पढना, पढते हुए सिर हिलाना, लिखा हुआ पढ जाना, अर्थ न जानकर पढना, और धीमा आवाज होना ये छे पाठक के दोष हैं ।

सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदर पूरणे । शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन् ॥

 भावार्थ :

सद्विद्या हो तो क्षुद्र पेट भरने की चिंता करने का कारण नहीं । तोता भी “राम राम” बोलने से खुराक पा हि लेता है ।

मातेव रक्षति पितेव हिते नियुंक्ते कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम् । लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम् किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या ॥

 भावार्थ :

विद्या माता की तरह रक्षण करती है, पिता की तरह हित करती है, पत्नी की तरह थकान दूर करके मन को रीझाती है, शोभा प्राप्त कराती है, और चारों दिशाओं में कीर्ति फैलाती है । सचमुच, कल्पवृक्ष की तरह यह विद्या क्या क्या सिद्ध नहीं करती ?

विद्याविनयोपेतो हरति न चेतांसि कस्य मनुजस्य । कांचनमणिसंयोगो नो जनयति कस्य लोचनानन्दम् ॥

 भावार्थ :

विद्यावान और विनयी पुरुष किस मनुष्य का चित्त हरण नहीं करता ? सुवर्ण और मणि का संयोग किसकी आँखों को सुख नहीं देता ?

हर्तृ र्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता । कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया विना ॥

 भावार्थ :

जो चोरों के नजर पडती नहीं, देने से जिसका विस्तार होता है, प्रलय काल में भी जिसका विनाश नहीं होता, वह विद्या के अलावा अन्य कौन सा द्रव्य हो सकता है ?

द्यूतं पुस्तकवाद्ये च नाटकेषु च सक्तिता । स्त्रियस्तन्द्रा च निन्द्रा च विद्याविघ्नकराणि षट् ॥

 भावार्थ :

जुआ, वाद्य, नाट्य (कथा/फिल्म) में आसक्ति, स्त्री (या पुरुष), तंद्रा, और निंद्रा – ये छे विद्या में विघ्नरुप होते हैं ।

 

Thursday, December 10, 2020

प्रार्थना श्लोक || sanskrit prayer slokas

वक्र तुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ: । 
निर्विघ्नं कुरु मे देव शुभ कार्येषु सर्वदा ॥ 

भावार्थ : हे हाथी के जैसे विशालकाय जिसका तेज सूर्य की सहस्त्र किरणों के समान हैं । बिना विघ्न के मेरा कार्य पूर्ण हो और सदा ही मेरे लिए शुभ हो ऐसी कामना करते है ।

शुभं करोति कल्याणं आरोग्यं धनसंपद: । 
शत्रुबुध्दिविनाशाय दीपजोतिर्नामोस्तुते ॥ 

भावार्थ : ऐसे देवता को प्रणाम करती हूँ ,जो कल्याण करता है, रोग मुक्त रखता है, धन सम्पदा देता हैं, जो विपरीत बुध्दि का नाश करके मुझे सद मार्ग दिखाता हैं, ऐसी दीव्य ज्योति को मेरा परम नम: । 

या देवी सर्वभूतेशु, शक्तिरूपेण संस्थिता । 
नमस्तसयै, नमस्तसयै, नमस्तसयै नमो नम: ॥ 

भावार्थ : देवी सभी जगह व्याप्त है जिसमे सम्पूर्ण जगत की शक्ति निहित है ऐसी माँ भगवती को मेरा प्रणाम, मेरा प्रणाम, मेरा प्रणाम । 

सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके । 
शरण्ये त्र्म्बकें गौरी नारायणि नमोस्तुते ॥ 

भावार्थ : जो सभी में श्रेष्ठ है, मंगलमय हैं जो भगवान शिव की अर्धाग्नी हैं जो सभी की इच्छाओं को पूरा करती हैं ऐसी माँ भगवती को नमस्कार करती हूँ । 

या कुंदेंदुतुषारहार धवला, या शुभ्र वस्त्रावृता । 
या वीणावरदण्डमंडितकरा, या श्वेतपद्मासना ॥ 
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता । 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेष जाड्यापहा ॥ 

भावार्थ : जो विद्या देवी कुंद के पुष्प, शीतल चन्द्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह श्वेत वर्ण की है और जिन्होंने श्वेत वर्ण के वस्त्र धारण किये हुए है, जिनके हाथ में वीणा शोभायमान है और जो श्वेत कमल पर विराजित हैं तथा ब्रह्मा,विष्णु और महेश और सभी देवता जिनकी नित्य वन्दना करते है वही अज्ञान के अन्धकार को दूर करने वाली माँ भगवती हमारी रक्षा करें 

ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मॄत्योर्मा अमॄतं गमय ॥ 

भावार्थ : हे प्रभु! असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर मेरी गति हो ।

संस्कृत गिनती (Counting in sanskrit )


1 - एकम्
2 - द्वे
3 - त्रीणि्
4 - चत्वारि
5 - पञ्च्
6 - षट्
7 - सप्त
8 - अष्ट
9 - नव्
10 - दश
11 - एकादश्
12 - द्वादश
13 - त्रयोदश्
14 - चतुर्दश
15 - पञ्चदश्
16 - षोडशे
17 - सप्तदश्
18 - अष्टादश
19 - नवदश्
20 - विंशतिः
21 - एकविंशतिः
22 - द्वाविंशतिः
23 - त्रयोविंशतिः
24 - चतुर्विंशतिः
25 - पञ्चविंशतिः
26 - षड्विंशतिः
27 - सप्तविंशतिः
28 - अष्टाविंशतिः
29 - नवविंशतिः
30 - त्रिंशत्
31 - एकत्रिंशत्
32 - द्वात्रिंशत्
33 - त्रयस्त्रिंशत्
34 - चतुस्त्रिंशत्
35 - पञ्चत्रिंशत्
36 - षट्त्रिंशत्
37 - सप्तत्रिंशत्
38 - अष्टत्रिंशत्
39 - नवत्रिंशत्
40 - चत्वारिंशत्
41 - एकचत्वारिंशत्
42 - द्विचत्वारिंशत्
43 - त्रिचत्वारिंशत्
44 - चतुश्चत्वारिंशत्
45 - पञ्चचत्वारिंशत्
46 - षट्चत्वारिंशत्
47 - सप्तचत्वारिंशत्
48 - अष्टचत्वारिंशत्
49 - नवचत्वारिंशत्
50 - पञ्चाशत्
51 - एकपञ्चाशत्
52 - द्विपञ्चाशत्
53 - त्रिपञ्चाशत्
54 - चतुःपञ्चाशत्
55 - पञ्चपञ्चाशत्
56 - षट्पञ्चाशत्
57 - सप्तपञ्चाशत्
58 - अष्टपञ्चाशत्
59 - नवपञ्चाशत्
60 - षष्टिः
61 - एकषष्टिः
62 - द्विषष्टिः
63 - त्रिषष्टिः
64 - चतुःषष्टिः
65 - पञ्चषष्टिः
66 - षट्षष्टिः
67 - सप्तषष्टिः
68 - अष्टषष्टिः
69 - नवषष्टिः
70 - सप्ततिः
71 - एकसप्ततिः
72 - द्विसप्ततिः
73 - त्रिसप्ततिः
74 - चतुःसप्ततिः
75 - पञ्चसप्ततिः
76 - षट्सप्ततिः
77 - सप्तसप्ततिः
78 - अष्टसप्ततिः
79 - नवसप्ततिः
80 - अशीतिः
81 - एकाशीतिः
82 - द्व्यशीतिः
83 - त्र्यशीतिः
84 - चतुरशीतिः
85 - पञ्चाशीतिः
86 - षडशीतिः
87 - सप्ताशीतिः
88 - अष्टाशीतिः
89 - नवाशीतिः
90 - नवतिः
91 - एकनवतिः
92 - द्विनवतिः
93 - त्रिनवतिः
94 - चतुर्नवतिः
95 - पञ्चनवतिः
96 - षण्णवतिः
97 - सप्तनवतिः
98 - अष्टनवतिः
99 - नवनवतिः
100 - शतम्

Monday, December 17, 2018

एकात्मता स्तोत्र (Ekatmata Strotra Mantra!)

एकात्मता स्तोत्र भारत की राष्ट्रीय एकता का उद्बोधक गीत है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में गाया जाता है। यह संस्कृत में है। इसमें आदिकाल से लेकर अब तक के भारत के महान सपूतों एवं सुपुत्रियों की नामावलि है जिन्होने भारत एवं महान हिन्दू सभ्यता के निर्माण में योगदान दिया। इसके अलावा इसमें आदर्श नारियाँ, धार्मिक पुस्तकें, नदियाँ, पर्वत, पवित्रात्मायें, पौराणिक पुरुष, वैज्ञानिक एवं सामाजिक-धार्मिक पर्वतक आदि सबके नामों का उल्लेख है।

ॐ नम: सच्चिदानंदरूपाय परमात्मने
ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमांगल्यमूर्तये || १ ||

प्रकृतिः पंचभूतानि ग्रहा लोकाः स्वरास्तथा
दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वन्तु मंगलम्।। २।।

रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्यां वन्दे भारत मातरम् || 3 ||

महेन्द्रो मलयः सह्यो देवतात्मा हिमालयः
ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिश्चारावलिस्तथा || ४ ||

गंगा सरस्वती सिन्धुर्ब्रह्मपुत्रश्च गण्डकी
कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी || ५ ||

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका
वैशाली द्वारिका ध्येया पुरी तक्षशिला गया || ६ ||

प्रयागः पाटलिपुत्रं विजयानगरं महत्
इन्द्रप्रस्थं सोमनाथः तथाअमृतसरः प्रियम् || ७ ||

चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा
रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शनानि च ॥८॥

जैनागमास्त्रिपिटकाः गुरुग्रन्थः सतां गिरः
एषः ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा ॥९॥

अरुन्धत्यनसूया च सावित्री जानकी सती
द्रौपदी कण्णगी गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥१०॥

लक्ष्मीरहल्या चन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा
निवेदिता सारदा च प्रणम्या मातृदेवताः ॥११॥

श्रीरामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः
मार्कंडेयो हरिश्चन्द्र प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥१२॥

हनुमान्‌जनको व्यासो वसिष्ठश्च शुको बलिः
दधीचि विश्वकर्माणौ पृथु वाल्मीकि भार्गवाः ॥१३॥

भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा
शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद् गीतकीर्तय ॥१४॥

बुद्धा जिनेन्द्रा गोरक्षः पाणिनिश्च पतंजलिः
शंकरो मध्व निंबार्कौ श्री रामानुजवल्लभौ ॥१५॥

झूलेलालोथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा
नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥१६॥

देवलो रविदासश्च कबीरो गुरुनानकः
नरसिस्तुलसीदासो दशमेषो दृढव्रतः ॥१७॥

श्रीमत् शंकरदेवश्च बंधू सायण माधवौ
ज्ञानेश्वरस्तुकारामो रामदासः पुरन्दरः ॥१८॥

बिरसा सहजानन्दो रामानन्दस्तथा महान्‌
वितरन्तु सदैवैते दैवीं सद्ड्गुणसंपदम्‌ ॥१९॥

भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जकणस्तथा
सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः ॥२०॥

रविवर्मा भातखंडे भाग्यचन्द्रः स भूपतिः
कलावंतश्च विख्याताः स्मरणीया निरंतरम्‌॥२१॥

अगस्त्यः कंबु कौन्डिण्यौ राजेन्द्रश्चोल वंशजः
अशोकः पुश्य मित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान्‌ ॥२२॥

चाणक्य चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहनः
समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेंद्रो बप्परावलः ॥२३॥

लाचिद्भास्कर वर्मा च यशोधर्मा च हूणजित्‌
श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बलः ॥२४॥

मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिवभूपतिः
रणजितसिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमाः ॥२५॥

वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा
चरको भास्कराचार्यो वराहमिहिरः सुधीः ॥२६॥

नागार्जुनो भरद्वाजः आर्यभट्टो वसुर्बुधः
ध्येयो वेंकटरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥२७॥

रामकृष्णो दयानंदो रवींद्रो राममोहनः
रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानंद उद्यशाः ॥२८॥

दादाभाई गोपबंधुः टिलको गांधीरादृताः
रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रमण्यभारती ॥२९॥

सुभाषः प्रणवानंदः क्रांतिवीरो विनायकः
ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरुः ॥३०॥

संघशक्तिप्रणेतारौ केशवो माधवस्तथा
स्मरणीयाः सदैवैते नवचैतन्यदायकाः ॥३१॥

अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरण संसक्तहृदयाः
अनिर्दिष्टाः वीराः अधिसमरमुद्ध्वस्तरिपवः
समाजोद्धर्तारः सुहितकर विज्ञान निपुणाः
नमस्तेभ्यो भूयात् सकलसुजनेभ्यः प्रतिदिनम्‌ ॥ ३२॥

इदमेकात्मतास्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत्‌
स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखंडं भारतं स्मरेत्‌ ॥३३॥

|| भारत माता की जय ||

प्रातः स्मरण || Pratah Smaranam

काराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती। करमूले तू गोविन्दः प्रभाते करदर्शनम्।।1।। समुन्द्रवसने देवि! पर्वतस्तनमण्डले। विष्णुपत्नि!नमस्तुभ्यंपादस्पर्शं क्षमस्व मे।।2।। ब्रह्मा मुरारीस्त्रिपुरांतकारी भानुः शशि भूमिसुतो बुधश्च। गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवेः कुर्वन्तु सर्वे मम सु प्रभातम्।।3।। सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङगलौ च। सप्त स्वराः सप्त रसातलानि कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।4।। सप्तार्णवा सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त। भूरादिकृत्वा भुवनानि सप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।5।। पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः स्पर्शी च वायुज्र्वलनं च तेजः। नभः सशब्दं महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम्।।6।। प्रातः स्मरणमेतद्यो विदित्वादरतः पठेत्। स सम्यक्धर्मनिष्ठः स्यात् अखण्डं भारतं स्मरेत्।। 7।।

एकात्मता मंत्र ( Ekatmata Mantra )

यं वैदिका मन्त्रदृशः पुराणाः इन्द्रं यमं मातरिश्वा नमाहुः।
वेदान्तिनो निर्वचनीयमेकम् यं ब्रह्म शब्देन विनिर्दिशन्ति॥
शैवायमीशं शिव इत्यवोचन् यं वैष्णवा विष्णुरिति स्तुवन्ति।
बुद्धस्तथार्हन् इति बौद्ध जैनाः सत् श्री अकालेति च सिख्ख सन्तः॥
शास्तेति केचित् कतिचित् कुमारः स्वामीति मातेति पितेति भक्त्या।
यं प्रार्थन्यन्ते जगदीशितारम् स एक एव प्रभुरद्वितीयः॥
English Transliteration:
yaṁ vaidikā mantradṛśaḥ purāṇāḥ indraṁ yamaṁ mātariśvā namāhuḥ |
edāntino nirvacanīyamekam yaṁ brahma śabdena vinirdiśanti ||
śaivāyamīśaṁ śiva ityavocan yaṁ vaiṣṇavā viṣṇuriti stuvanti |
buddhastathārhan iti bauddha jaināḥ sat śrī akāleti ca sikhkha santaḥ ||
śāsteti kecit katicit kumāraḥ svāmīti māteti piteti bhaktyā |
yaṁ prārthanyante jagadīśitāram sa eka eva prabhuradvitīyaḥ ||
Meaning:
Whom (Yam) the Vaidika Mantradrashah (those who have understood the Vedas and to whom the mantras were revealed), the Puranas (stories and history of ancient times) and other sacred scrip­tures call: Indram (Indra, the God of Gods), Yamam (Yama, the eternal timeless God) and Mātariśvā (present everywhere like air). Whom the Vedāntins (those who follow the philosophy of Vedānta), indicate by the word Brahma as the One (ekam) which cannot be described or explained (Nirvachaniya).
Whom the Śaivas call (Avochan) the Omnipotent (Yamisham) Śiva and Vaishnavas praise (stuvanti) as Vishnu, the Buddhists and Jains (Baudhajainaha) respectively call as Buddha and Arhant (without any end), whom the Sikh sages (Sikh-santaha) call Sat Śrī Akāl (the timeless Truth).
Some (kecit) call Whom as Śāstā, others (katicit) Kumāra, some call It Swāmī (Lord of the Universe and protector of all), some Mātā (divine mother) or Pitā (father). To whom they offer prayers, It (Sa) is the same and the only One (Eka Eva), without a second (advitiyah).